Tuesday, November 8, 2016

हुई चौड़ी चने के खेत में ...(सभी 5 पार्ट - सीमा भारद्वाज द्वारा रचितं)

ने अपनी शादी से पहले ही चुदाई का मज़ा लेना शुरू कर दिया था।

गणेश के साथ शादी होने के बाद पहली ही रात में मुझे पता चल गया था कि मैंने उससे शादी करके गलती की है। मैं तो सोचती थी कि सुहागरात में वो मुझे कम से कम 3-4 बार तो कस कस कर जरूर रगड़ेगा और अपनी धमाकेदार चुदाई से मेरे सारे कस-बल निकाल देगा। पर पता नहीं क्या दिक्कत थी उसका लंड अकड़ता तो था पर चुदाई से पहले ही मेरी फुदकती चूत की गर्मी से उसकी मलाई दूध बन के निकल जाती थी। ऐसा लगता था कि उसका लंड मेरी चूत में केवल मलाई छोड़ने के लिए ही जाता है। एक तो उसका लंड वैसे ही बहुत छोटा और पतला है मुश्किल से 3-4 धक्के ही लगा पाता कि उसका रस निकल जाता है और मैं सारी रात बस करवटें बदलते या बार बार अपनी निगोड़ी छमक छल्लो में अंगुली करती रहती हूँ। सुहागरात तो चलो जैसे मनी ठीक है पर उसने एक काम जरूर किया था कि मेरी छमिया की फांकों के बीच बनी पत्तियों (कलिकाओं) में नथ (सोने की पतली पतली दो बालियाँ) जरुर पहना दी थी। अब जब भी कभी मेरा मन चुदाई के लिए बेचैन हो जाता है तो मैं ऊपर से उन बालियों को पकड़ कर सहलाती रहती हूँ।
हमारी शादी को 6 महीने हो गए थे। सच कहूँ तो मुझे अपनी पहली चुदाई की याद आज तक आती रहती है। मुझे उदास देख कर गणेश ने प्रस्ताव रखा कि हम कुछ दिनों के लिए जोधपुर घूमने चलें। जोधपुर में इनके एक चचेरे भाई जगनदास शाह रहते हैं। जोधपुर में उनकी पक्की हवेली है और शहर से कोई 15-20 किलोमीटर दूर फार्म हाउस भी है। मार्च के शुरुआती दिन थे और मौसम बहुत सुहावना था। जिस प्रकार बसन्त ऋतु ने अंगड़ाई ली थी मेरी जवानी भी उस समय अपने पूरे शबाब पर ही तो थी और निगोड़ी चूत की खुजली तो हर समय मुझे यही कहती थी कि सारी रात एक लंबा और मोटा लंड डाले ही पड़ी रहूँ।

घर में जगन की पत्नी मंगला (32) और एक बेटी ही थी बस। जगन भी 35-36 के लपेटे में तो जरूर होगा पर अभी भी बांका गबरू जवान पट्ठा लगता था। छोटी छोटी दाढ़ी, कंटीली मूंछें और कानों में सोने की मुरकियाँ (बालियाँ) देख कर तो मुझे सोहनी महिवाल वाला महिवाल याद आ जाता

जब वो मुझे बहूजी कहता तो मुझे बड़ा अटपटा सा लगता पर मैं बाद में रोमांचित भी हो जाती। उन दोनों ने हमारा जी खोल कर स्वागत किया। रात को गणेश तो थकान के बहाने जल्दी ही 36 होकर (गांड मोड़ कर) सो गया पर बगल वाले कमरे से खटिया के चूर-मूर और कामुक सीत्कारें सुनकर मैं अपनी चूत में अंगुली करती रही। मेरे मन में बार बार यही ख़याल आ रहा था कि जगन का लंड कितना बड़ा और कितना मोटा होगा।

आज सुबह सुबह गणेश किसी काम से बाहर चला गया तो मंगला ने अपने पति से कहा कि नीरू को खेत (फार्म हाउस) ही दिखा लाओ। मैंने आज जानबूझ कर चुस्त सलवार और कुरता पहना था ताकि मेरे गोल मटोल नितम्बों की लचक और भी बढ़ जाए और तंग कुर्ते में मेरी चूचियाँ रगड़ खा-खा कर कड़ी हो जाएँ। मैंने आँखों पर काला चश्मा और सर पर रेशमी स्कार्फ बाँधा था। जगन ने भी कुरता पायजामा पहना था और ऊपर शाल ओढ़ रखी थी।
जीप से फार्म हाउस पहुँचने में हमें कोई आधा घंटा लगा होगा। पूरे खेत में सरसों और चने की फसल अपने यौवन पर थी। खेत में दो छोटे छोटे कमरे बने थे और साथ में एक झोपड़ी सी भी थे जिसके पास पेड़ के नीचे 2-3 पशु बंधे थे। पास ही 4-5 मुर्गियाँ घूम रही थी। हमारी गाड़ी देख कर झोपड़ी से 3-4 बच्चे और एक औरत निकल कर बाहर आ गए। औरत की उम्र कोई 25-26 की रही होगी। नाक नक्स तीखे थे और रंग गोरा तो नहीं था पर सांवला भी नहीं कहा जा सकता था। उसने घाघरा और कुर्ती पहन रखी थी और सर पर लूगड़ी (राजस्थानी ओढ़नी) ओढ़ रखी थी। इन कपड़ों में उसके नितंब और उरोज भरे पूरे लग रहे थे।
"घणी खम्मा शाहजी !" उस औरत ने अपनी ओढनी का पल्लू थोड़ा सा सरकाते हुए कहा।
"अरी....कम्मो ! देख आज बहूजी आई हैं खेत देखने !"
"घनी खम्मा बहूजी....आओ पधारो सा !" कम्मो ने मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत किया।
"वो....गोपी कहाँ है ?" जगन ने कम्मो से पूछा।
"जी ओ पास रै गाम गया परा ए !" (वो पास के गाँव गए हैं)
"क्यूँ ?"
"वो आज रात सूँ रानी गरम होर बोलने लाग गी तो बस्ती ऊँ झोटा ल्याण रै वास्ते गया परा ए..."
"ओ.... अच्छा ठीक है।" जगन ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा और फिर कम्मो से बोला,"तू बहूजी को अंदर लेजा और हाँ... इनकी अच्छे से देख भाल करियो.. हमारे यहाँ पहली बार आई हैं खातिर में कोई कमी ना रहे !" कहते हुए जगन पेड़ के नीचे बंधे पशुओं की ओर चला गया।
रानी और झोटे का क्या चक्कर था मुझे समझ नहीं आया। मैं और कम्मो कमरे में आ गए। बच्चे झोपड़े में चले गए। कमरे में एक तख्तपोश (बेड) पड़ा था। दो कुर्सियाँ, एक मेज, कुछ बर्तन और कपड़े भी पड़े थे।
मैं कुर्सी पर बैठ गई तो कम्मो बोली,,"आप रै वास्ते चाय बना लाऊँ ?"
"ना जी चाय-वाय रहने दो, आप मेरे पास बैठो, आपसे बहुत सी बातें करनी हैं।"
वो मेरे पास नीचे फर्श पर बैठ गई तो मैंने पूछा,"ये रानी कौन है ?"
"ओ रई रानी.... देखो रात सूँ कैसे डाँ डाँ कर रई है ?" उसने हँसते हुए पेड़ के नीचे खड़ी एक छोटी सी भैंस की ओर इशारा करते हुए कहा।
"क्यों ? क्या हुआ है उसे ? कहीं बीमार तो नहीं ? मैंने हैरान होते हुए पूछा।
"ओह... आप भी.... वो... इसको अब निगोड़ी जवानी चढ़ आई है। पिया मिलन रै वास्ते बावली हुई जा रई है।" कह कर कम्मो खिलखिला कर हँसने लगी तो मेरी भी हंसी निकल गई।
"अच्छा यह पिया-मिलन कैसे करेगी ?"
"आप अभी थोड़ी देर में देख लीज्यो झोटा इसके ऊपर चढ़ कर जब अपनी गाज़र इसकी फुदकणी में डालेगा तो इसकी गर्मी निकाल देवेगा।"
अब आप मेरी हालत का अंदाज़ा लगा सकते हैं। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा था और मेरी छमक छल्लो तो इस ख्याल से ही फुदकने लगी थी कि आज मुझे जबरदस्त चुदाई देखने को मिलने वाली है। मैंने कई बार गली में कुत्ते कुत्तियों को आपस में जुड़े हुए जरुर देखा था पर कभी पशुओं को सम्भोग करते नहीं देखा था।
उधर वो भैंस बार बार अपनी पूंछ ऊपर करके मूत रही थी और जोर जोर से रम्भा रही थी।
थोड़ी ही देर में दो आदमी एक झोटे (भैंसे) को रस्सी से पकड़े ले आये। जगन उस पेड़ के नीचे उस भैंस के पास ही खड़ा था। आते ही उन्होंने जगन को घनी खम्माकहा और फिर उस झोटे को थोड़ी दूर एक खूंटे से बाँध आये। झोटा उस भैंस की ओर देखकर अपनी नाक ऊपर करके हवा में पता नहीं क्या सूंघने की कोशिश कर रहा था।
एक आदमी तो वहीं रुक गया और दूसरा हमारे कमरे की ओर आ गया। उसकी उम्र कोई 45-46 की लग रही थी। मुझे तो बाद में समझ आया कि यही तो कम्मो का पति गोपी था।
उसने कम्मो को आवाज लगाई,"नीतू री माँ झोटे रे वास्ते चने री दाल भिगो दी थी ना ?"
"हाँ जी सबेरे ही भिगो दी थी।"
"ठीक है।" कह कर वो वापस चला गया और उसने साथ आये आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा,"सत्तू ! जा झोटा खोल अर ले आ।"
अब गोपी उस भैंस के पास गया और उसके गले में बंधी रस्सी पकड़ कर मुस्तैद (चौकन्ना) हो गया। सत्तू उस झोटे को खूंटे से खोल कर भैंस की ओर ले आया। झोटा दौड़ते हुए भैंस के पास पहुँच गया और पहले तो उसने भैंस को पीछे से सूंघा और फिर उसे जीभ से चाटने लगा। अब भैंस ने अपनी पूछ थोड़ी सी ऊपर उठा ली और थोड़ी नीचे होकर फिर मूतने लगी। झोटे ने उसका सारा मूत चाट लिया और फिर उसने एक जोर की हूँकार की। सत्तू उसकी पूँछ पकड़ कर मरोड़ रहा था और साथ साथ हुस...हुस... भी किये जा रहा था। गोपी अब थोड़ा और सावधान सा हो गया।
अब कम्मो दरवाजा बंद करने लगी। उसने बच्चों को पहले ही झोपड़े के अंदर भेज दिया था। इतना अच्छा मौका मैं भला कैसे छोड़ सकती थी। मैंने एक दो बार डिस्कवरी चेनल पर पशुओं को सम्भोग करते देखा था पर आज तो लाइव शो था, मैंने उसे दरवाज़ा बंद करने से मना कर दिया तो वो हँसने लगी।
अब मेरा ध्यान झोटे के लंड की ओर गया। कोई 10-12 इंच की लाल रंग की गाज़र की तरह लंबा और मोटा लंड उसके पेट से ही लगा हुआ था और उसमें से थोड़ा थोड़ा सफ़ेद तरल पदार्थ सा भी निकल रहा था। मैंने साँसें रोके उसे देख रही थी। अचानक मेरे मुँह से निकल गया,"हाय राम इतना लंबा ?"
मुझे हैरान होते देख कम्मो हंसने लगी और बोली,"जगन शाहजी का भी ऐसा ही लंबा और मोटा है।"
मैं कम्मो से पूछना चाहती थी कि उसे कैसे पता कि जगन का इतना मोटा और लंबा है पर इतने में ही वो झोटा अपने आगे के दोनों पैर ऊपर करके उछाला और भैंस की पीठ पर चढ़ गया। उसका पूरा लंड एक झटके में भैंस की चूत में समां गया। मेरी आँखें तो फटी की फटी रह गई थी। मुझे तो लग रहा था कि वह उस झोटे का वजन सहन नहीं कर पाएगी पर वो तो आराम से पैर जमाये खड़ी रही।
किसी जवान लड़की या औरत के साथ भी ऐसा ही होता है। देखने में चाहे वो कितनी भी पतली या कमजोर लगे अगर उसकी मन इच्छा हो तो मर्द का लंड कितना भी बड़ा और मोटा हो आराम से पूरा निगल लेती है।
सत्तू अभी भी झोटे की पीठ सहला रहा था अब झोटे ने हूँ...हूँ...करते हुए 4-5 झटके लगाए। अब झोटे ने एक और झटका लगाया और फिर धीरे धीरे नीचे उतरने लगा। होले होले उसका लंड बाहर निकलने लगा। अब मैंने ध्यान से देखा झोटे का लंड एक फुट के आस पास तो होगा ही। नीचे झूलता लंड आगे से पतला था पर पीछे से बहुत मोटा था जैसे कोई मोटी लंबी लाल रंग की गाज़र लटकी हो। लंड के अगले भाग से अभी भी थोड़ा सफ़ेद पानी सा (वीर्य) निकल रहा था। भैंस ने अपना सर पीछे मोड़ कर झोटे की ओर देखा। सत्तू झोटे को रस्सी से पकड़ कर फिर खूंटे से बाँध आया।
मेरी बहुत जोर से इच्छा हो रही थी कि अपनी छमिया में अंगुली या गाजर डाल कर जोर जोर से अंदर बाहर करूँ। कोई और समय होता तो मैं अभी शुरू हो जाती पर इस समय मेरी मजबूरी थी। मैंने अपनी दोनों जांघें जोर से भींच लीं। मुझे कम्मो से बहुत कुछ पूछना था पर इस से पहले कि मैं पूछती वो उठ कर बाहर चली गई और चने की दाल वाली बाल्टी गोपी को पकड़ा आई। फिर जगन ने साथ आये उस आदमी को 200 रुपये दिए और वो दोनों झोटे को दाल खिला कर उसे लेकर चले गए। जगन खेत में घूमने चला गया।
"बहूजी थारे वास्ते खाना बना लूँ ?" कम्मो ने उठते हुए कहा।
"आप मुझे बहूजी नहीं, बस नीरू बुलाएं और खाने की तकलीफ रहने दो... बस मेरे साथ बातें करो !"
"यो ना हो सके जी थे म्हारा मेहमान हो बिना खाना खाए ना जाने दूँगी। आप बैठो, मैं बस अभी आई।"
"चलो, मैं भी साथ चलती हूँ।"
मैं उसके साथ झोपड़े में आ गई। बच्चे बाहर खेलने चले गए। उसने खाना बनाना चालू कर दिया। अब मैंने कम्मो से पूछा,"ये गोपी तो उम्र में तुमसे बहुत बड़ा लगता है?"
"म्हारी तकदीर ही खोटी है ज॥" कम्मो कुछ उदास सी हो गई।
वो थोड़ी देर चुप रही फिर उसने बताया कि दरअसल गोपी के साथ उसकी बड़ी बहन की शादी हुई थी। कोई 10-11 साल पहले तीसरी जचगी के समय उसकी बहन की मौत हो गई तो घर वालों ने बच्चों का हवाला देकर उसे गोपी के साथ खूंटे से बाँध दिया। उस समय कम्मो की उम्र लगभग 15 साल ही थी। उसने बताया कि उसकी शादी के समय तक उसकी चूत पर तो बाल भी नहीं आने शुरू हुए थे और छाती पर उरोजों के नाम पर केवल दो नीबू ही थे। सुहागरात में गोपी ने उसे इतनी बुरी तरह रगड़ा था कि सारी रात उसकी कमसिन चूत से खून निकालता रहा था और फिर वो बचारी 5-6 दिन तक ठीक से चल भी नहीं पाई थी। अब जब कम्मो पूरी तरह जवान हुई है तो गोपी नन्दलाल बन गया है। वो कहते हैं ना :
चोदन चोदन सब करें, चोद सके न कोय
कबीर जब चोदन चले, लंड खड़ा न होय
"तो तुम फिर कैसे गुज़ारा करती हो ?" मैंने पूछा तो वो हँसने लगी।
फिर उसने थोड़ा शर्माते हुए सच बता दिया,"शादी का 3-4 साल बाद हम यहाँ आ गए थे। हम लोगों पर शाहजी (जगन) के बहुत अहसान हैं। और वैसे भी गरीब की लुगाई तो सब की भोजाई ही होवे है। शाहजी ने भी म्हारे साथ पहले तो हंसी मजाक चालू कियो फिर म्हारी दोना री जरुरत थी। थे तो जाणों हो म्हारो पति तो मरियल सो है और मंगला बाई सा को गांड मरवाना बिलकुल चोखा ना लागे। थाने बता दूं शाहजी गांड मारने के घणे शौक़ीन हैं !"
अब मुझे समझ आया कि उसके 2 बच्चों की उम्र तो 12-13 साल थी पर छोटे बच्चों के 3-4 साल ही थी। यह सब जगन की मेहरबानी ही लगती है। उसकी बातें सुनकर मेरी चूत इतनी गीली हो गई थी कि उसका रस अब मेरी फूल कुमारी (गांड) तक आ गया था और पेंटी पूरी गीली हो गई थी। मैंने अपनी छमिया को सलवार के ऊपर से ही मसलना चालू कर दिया।
अब वो भी बिना शर्माए सारी बात बताने लगी थी। उसने आगे बताया कि जगन शाहजी का लंड उस झोटे जैसा ही लगता है। रंग काला है और उसका सुपारा मशरूम की तरह है। वह चुदाई करते समय इतना रगड़ता है कि हड्डियाँ चटका देता है। चुदाई के साथ साथ वो गन्दी गन्दी गालियाँ भी निकलता रहता है। वो कहता है इससे लुगाई को भी जोश आ जाता है। मेरी तो एक बार चुदने के बाद पूरे एक हफ्ते की तसल्ली हो जाती है। मैं तो आधे घंटे की चुदाई में मस्त हो जाती हूँ उस दौरान 2-3 बार झड़ जाती हूँ।

"क्या उसने तुम्हारी कभी ग... गां... मेरा मतलब है...!" मैं कहते कहते थोड़ा रुक गई।
"हाँ जी ! कई बार मारते हैं।"
"क्या तुम्हें दर्द नहीं होता ?"
"पहले तो बहुत होता था पर अब बहुत मज़ा आता है।"
"वो कैसे ?"
"मैंने एक रास्ता निकाल लिया है।"
"क....क्या ?" मेरी झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी। कम्मो बात को लंबा खींच रही थी।
"पता है वो कोई क्रीम या तेल नहीं लगता ? पहले चूत को जोर जोर से चूस कर उसका रस निकाल देता है फिर अपने सुपारे पर थूक लगा कर लंड अंदर ठोक देता है। पहले मुझे गांड मरवाने में बहुत दर्द होता था पर अब जिस दिन मेरा गांड मरवाने का मन होता है मैं सुबह सुबह एक कटोरी ताज़ा मक्खन गांड के अंदर डाल देती हूँ। हालांकि उसके बाद भी यह चुनमुनाती तो रहती है पर जब मैं अपने चूतडों को भींच कर चलती हूँ तो बहुत मज़ा आता है।"
अब आप सोच सकते हो मेरी क्या हालत हुई होगी। मेरा मन बुरी तरह उस मोटे लंड के लिए कुनमुनाने लगा था। काश एक ही झटके में जगन अपना पूरा लंड मेरी चूत में उतार दे तो झूले लालकी कसम यह जिंदगी धन्य हो जाए। मेरी छमिया ने तो इस ख्याल से ही एक बार फिर पानी छोड़ दिया।
कम्मो ने खाना बहुत अच्छा बनाया था। चने के पत्ते वाली कढ़ी और देसी घी में पड़ी शक्कर के साथ बाजरे की रोटी खाने का मज़ा तो मैं आज तक नहीं भूली हूँ। कम्मो ने बताया कि कल वो दाल बाटी और गुड़ का चूरमा बना कर खिलाएगी।
शाम के 4 बज रहे थे। हम लोग वापस आने के लिए जीप में बैठ गए तो जगन उस झोपड़े की ओर चला गया जहां कम्मो बर्तन समेट रही थी। वो कोई 20-25 मिनट के बाद आया। उसके चेहरे की रंगत से लग रहा था कि वो जरूर कम्मो को रगड़ कर आया है। सच कहूँ तो मेरी तो झांटे ही जल गई।
मेरा मन चुदाई के लिए इतना बेचैन हो रहा था कि मैं चाह रही थी कि घर पहुँचते ही कमरा बंद करके घोड़ी बन जाऊं और गणेश मेरी कुलबुलाती चूत में अपना लंड डाल कर मुझे आधे घंटे तक तसल्ली से चोदे। पर हाय री किस्मत एक तो गणेश देर से आया और फिर रात में भी उसने कुछ नहीं किया। उसका लंड खड़ा ही नहीं हुआ। मैंने चूसा भी पर कुछ नहीं बना। वो तो पीठ मोड़ कर सो गया पर मैं तड़फती रह गई। अब मेरे पास बाथरूम में जाकर चूत में अंगुली करने के सिवा और क्या रास्ता बचा था !
आपको बता दूँ जिस कमरे में हम ठहरे थे उसका बाथरूम साथ लगे कमरे के बीच साझा था और उसका दरवाज़ा दोनों तरफ खुलता था। मैंने अपनी पनियाई चूत में कोई 15-20 मिनट अंगुली तो जरूर की होगी तब जाकर उसका थोड़ा सा रस निकला। अब मुझे साथ वाले कमरे से कुछ सीत्कारें सुनाई दी। मैंने बत्ती बंद करके की-होल से उस कमरे में झाँका। अंदर का नज़ारा देख कर मेरा रोम रोम झनझना उठा।
मंगला मादरजात नंगी हुई अपनी दोनों टांगें चौड़ी किये बेड पर चित्त लेती थी और उसने अपने नितंबों के नीचे एक मोटा तकिया लगा रखा था। जगन उसकी जाँघों के बीच पेट के बल लेटा हुआ मंगला की झांटों से लकदक चूत को जोर जोर से चाट रहा था जैसे वो झोटा उस भैंस की चूत को चाट रहा था। जैसे ही वो अपनी जीभ को नीचे से ऊपर लाता तो उसकी फांकें चौड़ी हो जाती और अंदर का गुलाबी रंग झलकने लगता। मंगला ने जगन का सर अपने हाथों में पकड़ रखा था और वो आँखें बंद किये जोर जोर से आह्ह.... उह्हह.... कर रही थी। मुझे जगन का लंड अभी दिखाई नहीं दिया था। अचानक जगन ने उसे कुछ इशारा किया तो मंगला झट से अपने घुटनों के बाल चौपाया हो गई और उसने अपने चूतड़ ऊपर कर दिए।
झूले लाल की कसम ! उसके नितंब तो मेरे नितंबों से भी भारी और गोल थे। अब जगन भी उठ कर उसके पीछे आ गया। अब मुझे उसके लंड के प्रथम दर्शन हुए। लगभग 8 इंच का काले रंग का लंड मेरी कलाई जितना मोटा लग रहा था और उसका सुपारा मशरूम की तरह गोल था।
अब मंगला ने कंधे झुका कर अपना सर तकिये पर रख लिया और अपने दोनों हाथ पीछे करके अपनी चूत की फांकों को चौड़ा कर दिया और अपनी जांघें थोड़ी और चौड़ी कर ली। चूत का चीरा 5 इंच का तो जरुर होगा। उसकी फांकें तो काली थी पर अंदर का रंग लाल तरबूज की गिरी जैसा था जो पूरा काम-रस से भरा था। जगन ने पहले तो उसके नितंबों पर 2-3 बार थपकी लगाई और फिर अपने एक हाथ पर थूक लगा कर अपने सुपारे पर चुपड़ दिया। फिर उसने अपना लंड मंगला की चूत के छेद पर रख दिया। अब जगन ने उसकी कमर पकड़ ली और उस झोटे की तरह एक हुंकार भरी और एक जोर का झटका लगाया। पूरा का पूरा लंड एक ही झटके में घप्प से मंगला की चूत के अंदर समां गया। मेरी तो आँखें फटी की फटी रह गई। मैं तो सोचती थी कि मंगला जोर से चिल्लाएगी पर वो तो मस्त हुई आह...याह्ह...करती रही।
मेरी साँसें तेज हो गई थी और दिल की धड़कने बेकाबू सी होने लगी थी। मेरी आँखों में जैसे लालिमा सी उतर आई थी। मुझे तो पता ही नहीं चला कब मेरे हाथ अपनी चूत की फांकों पर दुबारा पहुँच गए थे। मैंने फिर से उसमें अंगुली करनी चालू कर दी। दूसरी तरफ तो जैसे सुनामी ही आ गई थी। जगन जोर जोर से धक्के लगाने लगा था और मंगला की कामुक सीत्कारें पूरे कमरे में गूँजने लगी थी। बीच बीच में जगन उसके मोटे नितंबों पर थप्पड़ भी लगा रहा था। वो धीमी आवाज में गालियाँ भी निकाल रहा था और मंगला के नितंबों पर थप्पड़ भी लगा रहा था। जैसे ही वो उन कसे हुए नितंबों पर थप्पड़ लगाता नितंब थोड़ा सा हिलते और मंगला की सीत्कार फिर निकल जाती।
वो तो थकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दोनों ही किसी अखाड़े के पहलवानों की तरह जैसे एक दूसरे को हारने की कोशिश में ही लगे थे। जैसे ही जगन धक्का लगता मंगला भी अपने नितंब पीछे की ओर कर देती तो एक जोर की फच्च की आवाज आती। उन्हें कोई 10-12 मिनट तो हो ही गए होंगे। जगन अब कुछ धीमा हो गया था। वो धीरे धीरे अपना लण्ड बाहर निकालता और थोड़े अंतराल के बाद फिर एक जोर का धक्का लगता तो उसके साथ ही मंगला की चूत की गीली फांकें उसके लण्ड के साथ ही अंदर चली जाती।
मैंने कई बार ब्लू फिल्म देखी थी पर सच कहूँ तो इस चुदाई को देख कर तो मेरा दिल बाग-बाग ही हो गया था। मेरी आँखों में सतरंगी तारे जगमगाने लगे थे। मैंने अपनी चूत में तेज तेज अंगुली करनी चालू कर दी। मेरे ना चाहते हुए भी मेरी आँखें बंद होने लगी और मैं एक बार फिर झड़ गई।
अब जगन ने मंगला के नितंबों पर हाथ फिराया और दोनों गोलों को चौड़ा कर दिया उसके बीच काले रंग का फूल जैसे मुस्कुरा रहा था। उसने धक्के लगाने बंद नहीं किये थे। हलके धक्कों के साथ वो फूल भी कभी बंद होता कभी थोड़ा खुल जाता। अब वो अपना एक हाथ नीचे करके मंगला की चूत की ओर ले गया। मेरा अंदाज़ा था कि वो जरुर उसकी चूत के दाने को मसल रहा होगा। अब उसने दूसरे हाथ का अंगूठा मुँह में लेकर उस पर थूक लगाया और फिर मंगला की गांड के छेद में घुसा दिया।
इसके साथ ही मंगला की एक किलकारी कमरे में गूँज गई.......... ईईईईईईईईईईईईइ............
शायद वो झड़ गई थी। कुछ देर वो दोनों शांत रहे फिर जगन ने अपना लण्ड बाहर निकल लिया। चूत रस से भीगा लण्ड ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी में ऐसा लग रहा था जैसे कोई काला नाग फन उठाये नाच रहा हो। उसका लण्ड तो अभी भी झटके खा रहा था। मुझे तो लगा यह अपना लण्ड जरुर मंगला की गांड में डालने के चक्कर में होगा। पर मेरा अंदाज़ा गलत निकला।
"मंगला....तेरी चूत तो अब भोसड़ा बन गई है।"
"अबे बहनचोद ! इस मूसल लण्ड से रोज चुदाई करेगा तो भोसड़ा नहीं तो क्या डब्बी ही बनी रहेगी ?"
"सच कहता हूँ मंगला एक बार गांड मरवा ले ! बाबो सा री सौगंध तू चूत मरवाना भूल जायेगी !"
"जाओ कोई और ढूंढ़ लो मुझे अपनी गांड नहीं फड़वानी !"
मंगला घोड़ी बने शायद थक गई थी वो अपने नितंबों के नीचे एक तकिया लगा कर फिर चित्त लेट गई। चूत पर उगी काली काली झांटें चूत रस से भीग गई थी। अब जगन फिर उसकी जाँघों के बीच आ गया और उसने अपना लण्ड हाथ में पकड़ कर उसकी चूत में डाल दिया। जब जगन उसके ऊपर लेट गया तो मंगला ने अपने दोनों पैर ऊपर उठा लिए। जगन ने अपना एक हाथ उसकी गर्दन के नीचे लगाया और एक हाथ से उसके मोटे मोटे उरोजों को मसलने लगा। साथ ही वो उसके होंठों को भी चूसे जा रहा था। मंगला ने उसे कस कर अपनी बाहों में जकड़ लिया। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों गुत्थम-गुत्था हो गए थे। जगन के धक्कों की रफ़्तार अब तेज होने लगी थी।
मेरी चूत ने भी बेहताशा पानी छोड़ दिया था और ज्यादा मसलने के कारण उसकी फांकें सूज सी गई थी। मेरा मन कर रहा था कि मैं अभी दरवाज़ा खोल कर अंदर चली जाऊं और मंगला को एक ओर कर जगन का पूरा लण्ड अपनी चूत में डाल लूँ। या फिर उसको चित्त लेटा कर मैं अपनी छमिया को उसके मुँह पर लगा कर जोर जोर से रगडूं ! पर ऐसा कहाँ संभव था। लेकिन अब मैंने पक्का सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, मुझे कुछ भी करना पड़े मैं इस मूसल लण्ड का स्वाद जरुर लेकर रहूँगी।
उधर जगन ने धक्कों की जगह अपने लण्ड को उसकी चूत पर रगड़ना चालू कर दिया। मैंने मस्तराम की प्रेम कहानियों में पढ़ा था कि इस प्रकार लण्ड को चूत पर घिसने से औरत की चूत का दाना लण्ड के साथ बहुत रगड़ खाता है और औरत बिना कुछ किये धरे जल्दी ही झड़ जाती है। मंगला की सीत्कारें बंद बाथरूम तक भी साफ़ सुनाई दे रही थी।
अचानक मंगला की एक जोर की कामुक सीत्कार निकली और वो जोर जोर से चिल्लाने लगी,"ओह... जगन... अबे साले...जोर जोर से कर ना.. ओ....आह मेरी माँ उईई...माँ..... और जोर से मेरे राजा....या.....उईईईईई...."
अब जगन ने जोर जोर से धक्के लगाने शुरू कर दिए। मंगला ने अपने पैरों की कैंची सी बना कर उसकी कमर पर लपेट ली। जैसे ही जगन धक्के लगाने के लिए ऊपर उठता, मंगला के चूतड़ भी उसके साथ ही ऊपर उठ जाते और फिर एक धक्के के साथ उसके नितंब नीचे तकिये से टकराते और धच्च के आवाज निकलती और साथ ही उसके पैरों में पहनी पायल के रुनझुन बज उठती।
"जगन मेरे सांड...मेरे...राज़ा......अब निकाल दो....आह्ह्ह........"
लगता था मंगला फिर झड़ गई है।
"ले मेरी रानी.... (उस भैंस का नाम भी रानी था ना ?) आह्ह.... अब मैं भी जाने वाला हूँ.... आह...यह्ह्ह्ह......."
"ओ म्हारी माँ .... मैं मर गई री ईईईइ ….."
और उसके साथ ही उसने 5-6 धक्के जोर जोर से लगा दिए। मंगला के पैर धड़ाम से नीचे गिर गए और वह जोर जोर से हांफने लगी जगन का भी यही हाल था। दोनों ने एक दूसरे को अपनी बाहों में जकड़ लिया और दोनों की किलकारी एक साथ गूँज गई और फिर दोनों के होंठ एक दूसरे से चिपक गए।
कोई 10 मिनट तक वो दोनों इसी अवस्था में पड़े रहे फिर धीरे धीरे एक दूसरे को चूमते हुए उठ कर कपड़े पहनने लगे। मुझे लगा वो जरुर अब बाथरूम की ओर आयेंगे। मेरा मन तो नहीं कर रहा था पर बाथरूम से बाहर आकर कमरे में जाने की मजबूरी थी। मैं मन मसोस कर कमरे में आ गई।
कमरे में गणेश के खर्राटे सुन कर तो मेरी झांटे ही सुलग गई। मेरा मन किया उसकी गांड पर जोर से एक लात लगा दूं पर मैं रजाई में घुस गई। मेरी आँखों में नींद कहाँ थी मेरी आँखों में तो बस जगन का मूसल लण्ड ही बसा था। मैं तो रात के दो बजे तक करवटें ही बदलती रही। और जब आँख लगी तो फिर सारी रात वो काला मोटा लण्ड ही सपने में घूमता रहा।
आज मुझे सुबह उठने में देरी हो गई थी। गणेश नहा धो कर फिर किसी काम से चला गया था। जब मैं उठी तो मंगला ने बताया कि कम्मो ने संदेश भिजवाया है कि वो मेरे लिए आज विशेष रूप से दाल बाटी और चूरमा बनाएगी सो मैं आज फिर फ़ार्म हाउस जाऊं। मैं तो इसी ताक में थी।
जब हम फार्म हाउस पहुंचे तो झोपड़ी के पास 3-4 मुर्गियाँ दाना चुग रही थी। इतने में ही एक मुर्गा दौड़ता हुआ सा आया और एक मुर्गी को दबोच कर उसके ऊपर चढ़ गया। मुर्गी आराम से नीचे बैठी कों कों करती रही। मेरी छमिया ने तो उनको देख कर ही पानी छोड़ दिया। सच कहूँ तो इन पशु पक्षियों के मज़े हैं। ना कोई डर ना कोई बंधन। मर्जी आये जिसे, जब जहां, जिससे चाहो चुद लो या चोद लो। मेरी निगाहें तो उनकी इस प्रेम लीला को देखने से हट ही नहीं रही थी।
अचानक कम्मो ई,"घणी खम्मा" सुनकर मेरा ध्यान उसकी ओर गया। जगन मेरी ओर देख कर धीमे धीमे मुस्कुरा रहा था।
फिर जगन खेत में बने ट्यूब वेल की ओर चला गया और मैं कम्मो के साथ कमरे में आ गई। आज गोपी और बच्चे नहीं दिखाई दे रहे थे। मैंने जब इस बाबत पूछा तो कम्मो ने बताया कि बच्चे तो स्कूल गये हैं और गोपी किसी काम से फिर शहर चला गया है साम तक लौटेगा।
फिर वो बोली,"आज मैं थारे वास्ते दाल बाटी और चूरमा बनाऊंगी।"
"हाँ जरूर ! इसी लिए तो मैं आई हूँ।" मेरी निगाहें जगन को ढूंढ रही थी।
"आप बैठो मैं खाना बना लाऊँ !"
मुझे बड़ी जोर से सु सु आ रहा था। साथ ही मेरी छमिया भी चुलबुला रही थी, मैंने पूछा,"वो.....बाथरूम किधर है...?"
मेरी बात सुन कर कम्मो हँसते हुए बोली,"पूरा खेत ही बाथरूम है जी यहाँ तो.."
"ओह..."
"आप सरसों और चने के खेत में कर आओ...यहाँ कोई नहीं देखेगा जी..." वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
मजबूरी थी मैं सरसों के खेत में आ गई। मेरे कन्धों तक सरसों के बूटे खड़े थे। आस पास कोई नहीं था। मैंने अपनी साड़ी ऊपर की और फिर काले रंग की पेंटी को जल्दी से नीचे करते हुए मैं मूतने बैठ गई।
मैंने अपनी छमिया की फांकों पर पहनी दोनों बालियों को पकड़ कर चौड़ा किया और मूतने लगी। फिच्च सीईईई.... के मधुर संगीत के साथ पतली धार दूर तक चली गई। आपको बता दूं मैं धारा प्रवाह नहीं मूतती। बीच बीच में कई बार उसे रोक कर मूतती हूँ। मैंने कहीं पढ़ा था कि ऐसा करने से चूत ढीली नहीं पड़ती कसी हुई रहती है। एक और कारण है जब मूत को रोका जाए तो चूत के अंदर एक अनोखा सा रोमांच होने लगता है। मूत की कुछ बूँदें मेरी गांड के छेद तक भी चली गई। जैसे ही मैं उठने को हुई तो सुबह की ठंडी हवा का झोंका मेरी छमिया पर लगी तो मैं रोमांच से भर उठी और मैंने उसकी फांकों को मसलना चालू कर दिया। मेरे ख्यालों में तो बस कल रात वाली चुदाई का दृश्य ही घूम रहा था। मेरी आँखें अपने आप बंद हो गई और मैंने अपनी छमिया में अंगुली करनी शुरू कर दी। मेरे मुँह से अब सीत्कार भी निकलने लगी थी।
कोई 5-7 मिनट की अंगुलबाजी के बाद अचानक मेरी आँखें खुली तो देखा सामने जगन खड़ा अपने पजामे में बने उभार को सहलाता हुआ मेरी ओर एकटक देखे जा रहा था और मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
मैं तो हक्की बक्की ही रह गई। मैं तो इतनी सकपका गई थी कि उठ भी नहीं पाई।
जगन मेरे पास आ गया और मुस्कुराते हुए बोला,"भौजी आप घबराएं नहीं ! मैंने कुछ नहीं देखा।"
अब मुझे होश आया। मैं झटके से उठ खड़ी हुई। मैं तो शर्म के मारे धरती में ही गड़ी जा रही थी। पता नहीं जगन कब से मुझे देख रहा होगा। और अब तो वो मुझे बहूजी के स्थान पर भौजी (भाभी) कह रहा था।
"वो....वो...."
"अरे...कोई बात नहीं... वैसे एक बात बताऊँ?"
"क... क्या... ?"
"थारी लाडो बहुत खूबसूरत है !!"
वो मेरे इतना करीब आ गया था कि उसकी गर्म साँसें मुझे अपने चेहरे पर महसूस होने लगी थी। उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ी शर्म भी आई और फिर मैं रोमांच में भी डूब गई। अचानक उसने अपने हाथ मेरे कन्धों पर रख दिए और फिर मुझे अपनी और खींचते हुए अपनी बाहों में भर लिया। मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। मैं नारी सुलभ लज्जा के मारे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी। और वो इस बात को बहुत अच्छी तरह जानता था।
सच कहूँ तो एक पराये मर्द के स्पर्श में कितना रोमांच होता है मैंने आज दूसरी बार महसूस किया था। मैं तो कब से चाह रही थी कि वो मुझे अपनी बाहों में भर कर मसल डाले। यह अनैतिक क्रिया मुझे रोमांचित कर रही थी। उसने अपने होंठ मेरे अधरों पर रख दिए और उन्हें चूमने लगा। मैं अपने आप को छुड़ाने की नाकामयाब कोशिश कर रही थी पर अंदर से तो मैं चाह रही थी कि इस सुनहरे मौके को हाथ से ना जाने दूँ। मेरा मन कर रहा था कि जगन मुझे कस कर अपनी बाहों में जकड़ कर ले और मेरा अंग अंग मसल कर कुचल डाले। उसकी कंटीली मूंछें मेरे गुलाबी गालों और अधरों पर फिर रही थी। उसके मुँह से आती मधुर सी सुगंध मेरे साँसों में जैसे घुल सी गई।
"न.. नहीं...शाहजी यह आप क्या कर रहे हैं ? क.. कोई देख लेगा..? छोड़ो मुझे ?" मैंने अपने आप को छुड़ाने की फिर थोड़ी सी कोशिश की।
"अरे भौजी क्यों अपनी इस जालिम जवानी को तरसा रही हो ?"
"नहीं...नहीं...मुझे शर्म आती है..!"
अब वो इतना फुद्दू और अनाड़ी तो नहीं था कि मेरी इस ना और शर्म का असली मतलब भी ना समझ सके।
"अरे मेरी छमकछल्लो.... इसमें शर्म की क्या बात है। मैं जानता हूँ तुम भी प्यासी हो और मैं भी। जब से तुम्हें देखा है मैं तुम्हारे इस बेमिसाल हुस्न के लिए बेताब हो गया हूँ। तुम्हारे गुलाबी होंठ, गोल उरोज, सपाट पेट, गहरी नाभि, उभरा पेडू, पतली कमर, मोटे और कसे नितंब और भारी जांघें तो मुर्दे में भी जान फूंक दें फिर मैं तो जीता जागता इंसान हूँ !" कह कर उसने मुझे जोर से अपनी बाहों में कस लिया और मेरे होंठों को जोर जोर से चूमने लगा।
मेरे सारे शरीर में एक बिजली सी दौड़ गई और एक मीठा सा ज़हर जैसे मेरे सारे बदन में भर गया और आँखों में लालिमा उभर आई। मेरे दिल की धड़कने बहुत तेज हो गई और साँसें बेकाबू होने लगी। अब उसने अपना एक हाथ मेरे नितंबों पर कस कर मुझे अपनी ओर दबाया तो उसके पायजामे में खूंटे जैसे खड़े लण्ड का अहसास मुझे अपनी नाभि पर महसूस हुआ तो मेरी एक कामुक सीत्कार निकल गई।
"भौजी...चलो कमरे में चलते हैं !"
"वो..वो...क.. कम्मो...?" मैं तो कुछ बोल ही नहीं पा रही थी।
"ओह.. तुम उसकी चिंता मत करो उसे दाल बाटी ठीक से पकाने में पूरे दो घंटे लगते हैं।"
"क्या मतलब...?"
"वो.. सब जानती है...! बहुत समझदार है खाना बहुत प्रेम से बनाती और खिलाती है।" जगन हौले-हौले मुस्कुरा रहा था।
अब मुझे सारी बात समझ आ रही थी। कल वापस लौटते हुए ये दोनों जो खुसर फुसर कर रहे थे और फिर रात को जगन ने मंगला के साथ जो तूफानी पारी खेली थी लगता था वो सब इस योजना का ही हिस्सा थी। खैर जगन ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया तो मैंने भी अपनी बाहें उसके गले में डाल दी। मेरा जिस्म वैसे भी बहुत कसा हुआ और लुनाई से भरा है। मेरी तंग चोली में कसे उरोज उसके सीने से लगे थे। मैंने भी अपनी नुकीली चूचियाँ उसकी छाती से गड़ा दी।
हम दोनों एक दूसरे से लिपटे कमरे में आ गए।
उसने धीरे से मुझे बेड पर लेटा दिया और फिर कमरे का दरवाजे की सांकल लगा ली। मैं आँखें बंद किये बेड पर लेटी रही। अब जगन ने झटपट अपने सारे कपड़े उतार दिए। अब उसके बदन पर मात्र एक पत्तों वाला कच्छा बचा था। कच्छा तो पूरा टेंट बना था। वो मेरे बगल में आकर लेट गया और अपना एक हाथ मेरी साड़ी के ऊपर से ही मेरी चूत पर लगा कर उसका छेद टटोलने लगा। दूसरे हाथ से वो मेरे उरोजों को मसलने लगा।
फिर उसने मेरी साड़ी को ऊपर खिसकाना शुरू कर दिया। मैंने अपनी जांघें कस लीं। मेरी काली पेंटी में मुश्किल से फंसी मेरी चूत की मोटी फांकों को देख कर तो उसकी आँखें ही जैसे चुंधिया सी गई।
उसने पहले तो उस गीली पेंटी के ऊपर से सूंघा फिर उस पर एक चुम्मा लेते हुए बोला,"भौजी.. ऐसे मज़ा नहीं आएगा ! कपड़े उतार देते हैं।"
मैं क्या बोलती। उसने खींच कर पहले तो मेरी साड़ी और फिर पेटीकोट उतार दिया। मेरे विरोध करने का तो प्रश्न ही नहीं था। फिर उसने मेरा ब्लाउज भी उतार फेंका। मैं तो खुद जल्दी से जल्दी चुदने को बेकरार थी। मेरे ऊपर नशा सा छाने लगा था और मेरी आँखें उन्माद में डूबने लगी थी। मेरा अंदाज़ा था वो पहले मेरी चूत को जम कर चूसेगा पर वो तो मुझे पागल करने पर उतारू था जैसे। अब उसने मेरी ब्रा भी उतार दी तो मेरे रस भरे गुलाबी संतरे उछल कर जैसे बाहर आ गए। मेरे उरोजों की घुन्डियाँ ज्यादा बड़ी नहीं हैं बस मूंगफली के दाने जितनी गहरे गुलाबी रंग की हैं। उसने पहले तो मेरे उरोज जो अपने हाथ से सहलाया फिर उसकी घुंडी अपने मुँह में लेकर चूसने लगा। मेरी सीत्कार निकलने लगी। मेरा मन कर रहा था वो इस चूसा-चुसाई को छोड़ कर जल्दी से एक बार अपना खूंटा मेरी चूत में गाड़ दे तो मैं निहाल हो जाऊं।
बारी-बारी उसने दोनों उरोजों को चूसा और फिर मेरे पेट, नाभि और पेडू को चूमता चला गया। अब उसने मेरी पेंटी के अंदर बने उभार के ऊपर मुँह लगा कर सूंघा और फिर उस उभार वाली जगह को अपने मुँह में भर लिया। मेरे सारे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई और मुझे लगा मेरी छमिया ने फिर पानी छोड़ दिया।
फिर उसने काली पेंटी को नीचे खिसकाना शुरू कर दिया। मैंने दो दिन पहले ही अपनी झांटे साफ़ की थी इसलिए वो तो अभी भी चकाचक लग रही थी। आपको बता दूं कि मेरी ज्यादा चुदाई नहीं हुई थी तो मेरी फांकों का रंग अभी काला नहीं पड़ा था। मोटी मोटी फांकों के बीच चीरे का रंग हल्का भूरा गुलाबी था। मरी चूत की दोनों फांकें इतनी मोटी थी कि पेंटी उनके अंदर धंस जाया करती थी और उसकी रेखा बाहर से भी साफ़ दिखती थी। उसने केले के छिलके की तरह मेरी पेंटी को निकाल बाहर किया। मैंने अपने चूतड़ उठा कर पेंटी को उतारने में पूरा सहयोग किया। पर पेंटी उतार देने के बाद ना जाने क्यों मेरी जांघें अपने आप कस गई।
अब उसने अपने दोनों हाथ मेरी केले के तने जैसी जाँघों पर रखे और उन्हें चौड़ा करने लगा। मेरा तो सारा खजाना ही जैसे खुल कर अब उसके सामने आ गया था। वो थोड़ा नीचे झुका और फिर उसने पहले तो मेरी चूत पर हाथ फिराए और फिर उस पतली लकीर पर उंगुली फिराते हुए बोला,"भौजी.. तुम्हारी लाडो तो बहुत खूबसूरत है। लगता है उस गांडू गणेश ने इसका कोई मज़ा नहीं लिया है।"
मैंने शर्म के मारे अपने हाथ अपने चहरे पर रख लिए। अब उसने दोनों फांकों की बालियों को पकड़ कर चौड़ा किया और फिर अपनी लपलपाती जीभ उस झोटे की तरह मेरी लाडो की झिर्री के नीचे से लेकर ऊपर तक फिर दी। फिर उसने अपनी जीभ को 3-4 बार ऊपर से नीचे और फिर नीचे से ऊपर फिराया। मेरी लाडो तो पहले से ही काम रस से लबालब भरी थी। मैंने अपने आप ओ रोकने की बहुत कोशिश की पर मेरी सीत्कार निकलने लगी। कुछ देर जीभ फिराने के बाद उसने मेरी लाडो को पूरा का पूरा मुँह में भर लिया और जोर जोर से चूसने लगा। मेरे लिए यह किसी स्वर्ग के आनंद से कम नहीं था।
गणेश को चूत चाटने और चूसने का बिलकुल भी शौक नहीं है। एक दो बार मेरे बहुत जोर देने पर उसने मेरी छमिया को चूसा होगा पर वो भी अनमने मन से। जिस तरह से जगन चुस्की लगा रहा था मुझे लगा आज मेरा सारा मधु इसके मुँह में ही निकल जाएगा। उसकी कंटीली मूंछें मेरी लाडो की कोमल त्वचा पर रगड़ खाती तो मुझे जोर की गुदगुदी होती और मेरे सारे शरीर में अनोखा रोमांच भर उठता।
उसने कोई 5-6 मिनट तो जरुर चूसा होगा। मेरी लाडो ने कितना शहद छोड़ा होगा मुझे कहाँ होश था। पता नहीं यह चुदाई कब शुरू करेगा। अचानक वो हट गया और उसने भी अपने कच्छे को निकाल दिया। 8 इंच काला भुजंग जैसे अपना फन फैलाए ऐसे फुन्कारें मार रहा था जैसे चूत में गोला बारी करने को मुस्तैद हो। उसने अपने लण्ड को हाथ में पकड़ लिया और 2-3 बार उसकी चमड़ी ऊपर नीचे की फिर उसने नीचे होकर मेरे होंठों के ऊपर फिराने लगा। मैंने कई बार गणेश की लुल्ली चूसी थी पर यह तो बहुत मोटा था। मैंने उसे अपने दोनों हाथों की मुट्ठियों में पकड़ लिया। आप उस की लंबाई और मोटाई का अंदाज़ा बखूबी लगा सकते हो कि मेरी दोनों मुट्ठियों में पकड़ने के बावजूद भी उसका सुपारा अभी बाहर ही रह गया था। मैंने अपनी दोनों बंद मुट्ठियों को 2-3 बार ऊपर नीचे किया और फिर उसके सुपारे पर अपनी जीभ फिराने लगी तो उसका लण्ड झटके खाने लगा।
"भौजी इसे मुँह में लेकर एक बार चूसो बहुत मज़ा आएगा।"
मैंने बिना कुछ कहे उसका सुपारा अपने मुँह में भर लिया। सुपारा इतना मोटा था कि मुश्किल से मेरे मुँह में समाया होगा। मैंने उसे चूसना चालू कर दिया पर मोटा होने के कारण मैं उसके लण्ड को ज्यादा अंदर नहीं ले पाई। अब तो वो और भी अकड़ गया था। जगन ने अपनी आँखें बंद कर रखी थी और दोनों हाथों से मेरा सर पकड़ कर सीत्कार करने लगा था। मुझे डर था कहीं उसका लण्ड मेरे मुँह में ही अपनी मलाई ना छोड़ दे। मैं ऐसा नहीं चाहती थी। 3-4 मिनट चूसने के बाद मैंने उसका लण्ड अपने मुँह से बाहर निकाल दिया। मेरा तो गला और मुँह दोनों दुखने लगे थे।
अब वो मेरी जाँघों के बीच आ गया और मेरी चूत की फांकों पर लगी बालियों को चौड़ा करके अपने लण्ड का सुपारा मेरी छमिया के छेद पर लगा दिया। मैं डर और रोमांच से सिहर उठी। हे झूले लाल.... इतना मोटा और लंबा मूसल कहीं मेरी छमिया को फाड़ ही ना डाले। मुझे लगा आज तो मेरी लाडो का चीरा 4 इंच से फट कर जरुर 5 इंच का हो जाएगा। पर फिर मैंने सोचा जब ओखली में सर दे ही दिया है तो अब मूसल से क्या डरना।
अब उसने अपना एक हाथ मेरी गर्दन के नीचे लगा लिया और दूसरे हाथ से मेरे उरोजों को मसलने लगा। फिर उसने अपनी अंगुली और अंगूठे के बीच मेरे चुचूक को दबा कर उसे धीरे धीरे मसलने लगा। मेरी सिसकारी निकल गई। मेरी छमिया तो जैसे पीहू पीहू करने लगी थी। उसका मोटा लण्ड मेरी चूत के मुहाने पर ठोकर लगा रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी यह अपना मूसल मेरी छमिया में डाल कर उसे ओखली क्यों नहीं बना रहा। मेरा मन कर रहा था कि मैं ही अपने नितंब उछाल कर उसका लण्ड अंदर कर लूँ। मेरा सारा शरीर झनझना रहा था और मेरी छमिया तो जैसे उसका स्वागत करने को अपना द्वार चौड़ा किये तैयार खड़ी थी।
अचानक उसने एक झटका लगाया और फिर उसका मूसल मेरी छमिया की दीवारों को चौड़ा करते हुए अंदर चला गया। मेरी तो मारे दर्द के चीख ही निकल गई। धक्का इतना जबरदस्त था कि मुझे दिन में तारे नज़र आने लगे थे। मुझे लगा उसका मूसल मेरी बच्चेदानी के मुँह तक चला गया है और गले तक आ जाएगा। मैं दर्द के मारे कसमसाने लगी। उसने मुझे कस कर अपनी अपनी बाहों में जकड़े रखा। उसने अपने घुटने मोड़ कर अपनी जांघें मेरी कमर और कूल्हों के दोनों ओर ज्यादा कस ली। मैं तो किसी कबूतरी की तरह उसकी बलिष्ट बाहों में जकड़ी फड़फड़ा कर ही रह गई। मेरे आंसू निकल गए और छमिया में तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसे तीखी छुरी से चीर दिया है। मुझे तो डर लग रहा था कहीं वो फट ना गई हो और खून ना निकलने लगा हो।000000000k1_500.gif

कुछ देर वो मेरे ऊपर शांत होकर पड़ा रहा। उसने अपनी फ़तेह का झंडा तो गाड़ ही दिया था। उसने मेरे गालों पर लुढ़क आये आंसू चाट लिए और फिर मेरे अधरों को चूसने लगा। थोड़ी देर में उसका लण्ड पूरी तरह मेरी चूत में समायोजित हो गया। मुझे थोड़ा सा दर्द तो अभी भी हो रहा था पर इतना नहीं कि सहन ना किया जा सके। साथ ही मेरी चूत की चुनमुनाहट तो अब मुझे रोमांचित भी करने लगी थी। अब मैंने भी सारी शर्म और दर्द भुला कर आनंद के इन क्षणों को भोगने का मन बना ही लिया था। मैंने उसकी जीभ अपने मुँह में भर ली और उसे ऐसे चूसने लगी जैसे उसने मेरी छमिया को चूसा था। कभी कभी मैं भी अपनी जीभ उसके मुँह में डालने लगी थी जिसे वो रसीली कुल्फी की तरह चूस रहा था।
उसने हालांकि मेरी छमिया की फांकों और कलिकाओं को बहुत कम चूसा था पर जब वो कलिकाओं को पूरा मुँह में भर कर होले होले उनको खींचता हुआ मुँह से बाहर निकालता था तो मेरा रोमांच सातवें आसमान पर होता था। जिस अंदाज़ में अब वो मेरी जीभ चूस रहा था मुझे बार बार अपनी छमिया के कलिकाओं की चुसाई याद आ रही थी।
ओह... मैं भी कितना गन्दा सोच रही हूँ। पर आप सभी तो बहुत गुणी और अनुभवी हैं, जानते ही हैं कि प्रेम और चुदाई में कुछ भी गन्दा नहीं होता। जितना मज़ा इस मनुष्य जीवन में ले लिया जाए कम है। पता नहीं बाद में किस योनि में जन्म हो या फिर कोई गणेश जैसा लोल पल्ले पड़ जाए।
मेरी मीठी सीत्कार अपने आप निकलने लगी थी। मुझे तो पता ही नहीं चला कि कब जगन ने होले होले धक्के भी लगाने शुरू कर दिए थे। मुझे कुछ फंसा फंसा सा तो अनुभव हो रहा था पर लण्ड के अंदर बाहर होने में कोई दिक्कत नहीं आ रही थी। वो एक जोर का धक्का लगता और फिर कभी मेरे गालों को चूम लेता और कभी मेरे होंठों को। कभी मेरे उरोजों को चूमता मसलता और कभी उनकी घुंडियों को दांतों से दबा देता तो मेरी किलकारी ही गूँज जाती। अब तो मैं भी नीचे से अपने नितम्बों को उछल कर उसका साथ देने लगी थी।
हम दोनों एक दूसरे की बाहों में किसी अखाड़े के पहलवानों की तरह गुत्थम गुत्था हो रहे थे। साथ साथ वो मुझे गालियाँ भी निकाल रहा था। मैं भला पीछे क्यों रहती। हम दोनों ने ही चूत भोसड़ी लण्ड चुदाई जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग किया। जितना एक दूसरे को चूम चाट और काट सकते थे काट खाया। जितना उछल-कूद और धमाल मचा सकते थे हमने मचाई। वो कोशिश कर रहा था कि जितना अंदर किया जा सके कर दे। इतनी कसी हुई चूत उसे बहुत दिनों बाद नसीब हुई थी। मैंने अपनी जांघें जितनी चौड़ी की जा सकती थी कर ली ताकि वो ज्यादा से ज्यादा अंदर डाल सके। मुझे तो लगा मैं पूर्ण सुहागन तो आज ही बनी हूँ। सच कहूं तो इस चुदाई जैसे आनंद को शब्दों में तो वर्णित किया ही नहीं जा सकता।
वो लयबद्ध ढंग से धक्के लगता रहा और मैं आँखें बंद किये सतरंगी सपनों में खोई रही। वो मेरा एक चूचक अपने मुँह में भर कर चूसे जा रहा था और दूसरे को मसलता जा रहा था। मैं उसके सर और पीठ को सहला रही थी। और उसके धक्कों के साथ अपने चूतड़ भी ऊपर उठाने लगी थी। इस बार जब मैंने अपने चूतड़ उछाले तो उसने अपना एक हाथ मेरे नितंबों के नीचे किया और मेरी गांड का छेद टटोलने लगा।
पहले तो मैंने सोचा कि चूत से निकला कामरज वहाँ तक आ गया होगा पर बाद में मुझे पता चला कि उसने अपनी तर्जनी अंगुली पर थूक लगा रखा था। तभी मुझे अपनी गांड पर कुछ गीला गीला सा लगा। इससे पहले कि मैं कुछ समझती उसने अपनी थूक लगी अंगुली मेरी गांड में डाल दी। उसके साथ ही मेरी हर्ष मिश्रित चीख सी निकल गई। मुझे लगा मैं झड़ गई हूँ।
"अबे...ओ...बहन के टके...भोसड़ी के...ओह..."
"अरे मेरी छमिया... तेरी लाडो की तरह तेरी गांड भी कुंवारी ही लगती है ?"
"अबे साले..... मुफ्त की चूत मिल गई तो लालच आ गया क्या ?" मैंने अपनी गांड से उसकी उंगुली निकालने की कोशिश करते हुए कहा।
"भौजी.. एक बार गांड मार लेने दो ना ?" उसने मेरे गालों को काट लिया।
"ना...बाबा... ना... यह मूसल तो मेरी गांड को फाड़ देगा। तुमने इस चूत का तो लगता है बैंड बजा दिया है, अब गांड का बाजा नहीं बजवाऊंगी।"
मेरे ऐसा कहने पर उसने अपना लण्ड मेरी चूत से बाहर निकाल लिया। मैंने अपना सर उठा कर अपनी चूत की ओर देखा। उसकी फांकें फूल कर मोटी और लाल हो गई थी और बीच में से खुल सी गई थी। मुझे अपनी चूत के अंदर खालीपन सा अनुभव हो रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी उसने बीच में ही चुदाई क्यों बंद कर दी।
"भौजी एक बार तू घुटनों के बल हो जा !"
"क..क्यों...?" मैंने हैरान होते हुए पूछा।
हे झूले लाल ! कहीं यह अब मेरी गांड मारने के चक्कर में तो नहीं है। डर के मारे में सिहर उठी। मैं जानती थी मैं इस मूसल को अपनी गांड में नहीं ले पाउंगी।
"ओहो... एक बार मैं जैसा कहता हूँ करो तो सही...जल्दी..."
"ना बाबा मैं गांड नहीं मारने दूंगी। मेरी तो जान ही निकल जायेगी.."
"अरे मेरी बुलबुल ! तुम्हें मरने कौन साला देगा। एक बार गांड मरवा लो जन्नत का मज़ा आ जाएगा तुम्हें भी। सच कहता हूँ तुम्हारी कसी हुई कुंवारी गांड के लिए तो मैं मरने के बाद ही कब्र से उठ कर आ जाऊँगा.."
"न... ना... आज नहीं.... बाद में..." मैं ना तो हाँ कर सकती थी और ना ही उसे मन कर सकती थी। मुझे डर था वो कहीं चुदाई ही बंद ना कर दे। इसलिए मैंने किसी तरह फिलहाल उससे पीछा छुड़ाया।
"अरे मेरी सोन-चिड़ी ! मेरी रामकली ! एक बार इसका मज़ा लेकर तो देखो तुम तो इस्सस .... कर उठोगी और कहोगी वंस मोर... वंस मोर...?"
"अरे मेरे देव दास इतनी कसी हुई चूत मिल रही है और तुम लालची बनते जा रहे हो ?"
"चलो भई कोई बात नहीं मेरी बिल्लो पर उस आसान में चूत तो मार लेने दो...?"
"ओह... मेरे चोदू-राजा अब आये ना रास्ते पर !" मेरे होंठों पर मुस्कान फिर से लौट आई।

"अरे मेरी सोन-चिड़ी ! मेरी रामकली ! एक बार इसका मज़ा लेकर तो देखो तुम तो इस्सस .... कर उठोगी और कहोगी वंस मोर... वंस मोर...?"
"अरे मेरे देव दास इतनी कसी हुई चूत मिल रही है और तुम लालची बनते जा रहे हो ?"
"चलो भई कोई बात नहीं मेरी बिल्लो पर उस आसन में चूत तो मार लेने दो...!"
"ओह... मेरे चोदू-राजा अब आये ना रास्ते पर !" मेरे होंठों पर मुस्कान फिर से लौट आई।
मैं झट से अपने घुटनों के बल (डॉगी स्टाइल में) हो गई। अब वो मेरे पीछे आ गया। उसने पहले तो अपने दोनों हाथों से मेरे नितंबों को चौड़ा किया और फिर दोनों नितंबों को बारी बारी चूम लिया। फिर उसने उन पर थपकी सी लगाई जैसे किसी घोड़ी की सवारी करने से पहले उस पर थपकी लगाई जाती है। फिर उसने अपने लण्ड को मेरी फांकों पर घिसना चालू कर दिया। मैंने अपनी जांघें चौड़ी कर ली। उसने अपना लण्ड फिर छेद पर लगाया और मेरी कमर पकड़ कर एक जोर का धक्का लगाया। एक गच्च की आवाज़ के साथ पूरा लण्ड अंदर चला गया। धक्का इतना तेज था कि मेरा सर ही नीचे पड़े तकिये से जा टकराया।
"उईईईईई.... मा.... म... मार डा...ला...रे...मादर चो...!!"
"मेरी जान अब देखना कितना मज़ा आएगा।"
कह कर उसने उसने दनादन धक्के लगाने शुरू कर दिए।
"अबे बहन चोद जरा धीरे... आह...."
"बहनचोद नहीं भौजी चोद बोलो..."
"ओह... आह...धीरे... थोड़ा धीरे..."
"क्यों...?"
"मुझे लगता है मेरे गले तक आ गया है..."
"साली बहन की लौड़ी... नखरे करती है...यह ले... और ले..." कह कर वो और तेज तेज धक्के लगाने लगा।
यह पुरुष प्रवृति होती है। जब उसे अपनी मन चाही चीज़ के लिए मना कर दिया जाए तो वो अपनी खीज किसी और तरीके से निकालने लगता है। जगन की भी यही हालत थी। वो कभी मेरे नितंबों पर थप्पड़ लगाता तो कभी अपने हाथों को नीचे करके मेरे उरोजों को पकड़ लेता और मसलने लगता। ऐसा करने से वो मेरे ऊपर कुछ झुक सा जाता तो उसके लटकते भारी टट्टे मेरी चूत पर महसूस होते तो मैं तो रोमांच में ही डूब जाती। कभी कभी वो अपना एक हाथ नीचे करके मेरे किशमिश के दाने को भी रगड़ने लगाता। मैं तो एक बार फिर से झड़ गई।
हमें इस प्रकार उछल कूद करते आधा घंटा तो हो ही गया होगा पर जगन तो थकने का नाम ही नहीं ले रहा था। वो 3-4 धक्के तो धीरे धीरे लगाता और फिर एक जोर का धक्का लगा देता और साथ ही गाली भी निकलता हुआ बड़बड़ा रहा था। पता नहीं क्यों उसकी मार और गालियाँ मुझे दर्द के स्थान पर मीठी लग रही थी। मैं उसके हर धक्के के साथ आह.... ऊंह.... करने लगी थी। मेरी चूत ने तो आज पता नहीं कितना रस बहाया होगा पर जगन का रस अभी नहीं निकला था।
मैं चाह रही थी कि काश वक्त रुक जाए और जगन इसी तरह मुझे चोदता रहे। पर मेरे चाहने से क्या होता आखिर शरीर की भी कुछ सीमा होती है। जगन की सीत्कारें निकलने लगी थी और वो आँखें बंद किये गूं..गूं... या... करने लगा था। मुझे लगा अब वो जाने वाला है। मैंने अपनी चूत का संकोचन किया तो उसके लण्ड ने भी अंदर एक ठुमका सा लगा दिया। अब उसने मेरी कमर कस कर पकड़ ली और जोर जोर से धक्के लगाने लगा।
"मेरी प्यारी भौजी... आह... मेरी जान... मेरी न.. नीर...ररर..रू...."
मुझे भी कहाँ होश था कि वो क्या बड़बड़ा रहा है। मेरी आँखों में भी सतरंगी सितारे झिलमिलाने लगे थी। मेरी चूत संकोचन पर संकोचन करने लगी और गांड का छेद खुलने बंद होने लगा था। मुझे लगा मेरा एक बार फिर निकलने वाला है।
इसके साथ ही जगन ने एक हुंकार सी भरी और मेरी कमर को कस कर पकड़ते हुए अपना पूरा लण्ड अंदर तक ठोक दिया और मेरी नितंबों को कस कर अपने जाँघों से सटा लिया। शायद उसे डर था कि इन अंतिम क्षणों में मैं उसकी गिरफ्त से निकल कर उसका काम खराब ना कर दूँ।
"ग....इस्सस्सस्सस....... मेरी जान......"
और फिर गर्म गाढ़े काम-रस की फुहारें निकलने लगी और मेरी चूत लबालब उस अनमोल रस से भरती चली गई। जगन हांफने लगा था। मेरी भी कमोबेश यही हालत थी। मैंने अपनी चूत को एक बार फिर से अंदर से भींच लिया ताकि उसकी अंतिम बूँदें भी निचोड़ लूँ। एक कतरा भी बाहर न गिरे। मैं भला उस अमृत को बाहर कैसे जाने दे सकती थी।
अब जगन शांत हो गया। मैं अपने पैर थोड़े से सीधे करते हुए अपने पेट के बल लेटने लगी पर मैंने अपने नितंब थोड़े ऊपर ही किये रखे। मैंने अपने दोनों हाथ पीछे करके उसकी कमर पकड़े रखी ताकि उसका लण्ड फिसल कर बाहर ना निकल जाए। अब वो इतना अनाड़ी तो नहीं था ना। उसने मेरे दोनों उरोजों को पकड़ लिया और हौले से मेरे ऊपर लेट गया। उसका लण्ड अभी भी मेरी चूत में फंसा था। अब वो कभी मेरे गालों को चूमता कभी मेरे सर के बालों को कभी पीठ को। रोमांच के क्षण भोग कर हम दोनों ही निढाल हो गए पर मन बही नहीं भरा था। मन तो कह रहा था और दे....और दे....
थोड़ी देर बाद हम दोनों उठ खड़े हुए। मैं कपड़े पहन कर बाहर कम्मो को देखने जाना चाहती थी। पर जगन ने मुझे फिर से पकड़ कर अपनी गोद में बैठा लिया। मैंने भी बड़ी अदा से अपनी बाहें उसके गले में डाल कर उसके होंठों पर एक जोर का चुम्मा ले लिया।
उसके बाद हमने एक बार फिर से वही चुदाई का खेल खेला। और उसके बाद 4 दिनों तक यही क्रम चलता रहा। कम्मो हमारे लिए स्वादिस्ट खाना बनाती पर हमें तो दूसरा ही खाना पसंद आता था। कम्मो मेरे गालों और उरोजों के पास हल्के नीले निशानों को देख कर मन्द-मन्द मुस्कुराती तो मैं मारे शर्म के कुछ बताने या कहने के बजाय यही कहती,"कम्मो तुम्हारे हाथ का यह खाना मुझे जिंदगी भर याद रहेगा।"
अब वो इतनी भोली भी नहीं थी कि यह ना जानती हो कि मैं किस मजेदार खाने की बात कर रही हूँ। आप भी तो समझ गए ना या गणेश की तरह लोल ही हैं ?
बस और क्या कहूँ चने के खेत में चौड़ी होने की यही कहानी है। मैंने उन 4 दिनों में जंगल में मंगल किया और जो सुख भोगा था वो आज तक याद करके आहें भरती रहती हूँ। उसने मुझे लगभग हर आसान में चोदा था। हमने चने और सरसों की फसल के बीच भी चुदाई का आनंद लिया था। मैं हर चुदाई में 3-4 बार तो जरुर झड़ी होऊंगी पर मुझे एक बात का दुःख हमेशा रहेगा मैंने जगन से अपनी गांड क्यों नहीं मरवाई। उस बेचारे ने तो बहुत मिन्नतें की थी पर सच पूछो तो मैं डर गई थी। आज जब उसके मोटे लंबे लण्ड पर झूमता मशरूम जैसा सुपारा याद करती हूँ तो दिल में एक कसक सी उठती है। बरबस मुझे यह गाना याद आ जाता है :
सोलहा बरस की कुंवारी कली थी
घूँघट में मुखड़ा छुपा के चली थी
हुई चौड़ी चने के खेत में....
काश मुझे दुबारा कोई ऐसा मिल जाए जिसका लण्ड खूब मोटा और लंबा हो और सुपारा आगे से मशरूम जैसा हो जिसे वो पूरा का पूरा मेरी गांड में डाल कर मुझे कसाई के बकरे की तरह हलाल कर दे तो मैं एक बार फिर से उन सुनहरे पलों को जी लूँ।

बस दोस्तों ! आज इतना ही। पर आप मुझे यह जरूर बताना कि यह कहानी आपको कैसी लगी।
सभी 5 पार्ट -  सीमा भारद्वाज द्वारा रचितं