Sunday, April 8, 2018

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प्रिया


री साली की युवा बेटी हमारे साथ रहने आई और कैसे मेरे और उसके बीच सेक्स सम्बन्ध पल्लवित हुए!

प्रिया के और मेरे उस रात के सपने जैसे प्रेमालाप के बाद हमें दोबारा कोई ऐसा मौका ही नहीं मिला और सच मानिये कि मैंने दोबारा ऐसी कोई कोशिश ही नहीं की.
प्रिया के मन की तो प्रिया ही जाने लेकिन मैं भली-भांति जानता हूँ कि असली ख़ुशी ऐसे शाश्वत आनन्ददायक पलों को याद करने में ही होती है और अगर कोई उन सपनीले क्षणों को ज़बरदस्ती दोहराना चाहे तो गहरी मायूसी ही हाथ लगती है.
यूँ भी एक अकथनीय सा अपराधबोध मेरे मन में था. मैं तो प्रिया से आँख मिलाने में भी झिझकने लगा था. वैसे भी उस रात के बाद, प्रिया का और हमारे परिवार का साथ भी थोड़ा ही रहा. कुछ दिनों बाद प्रिया के कॉलेज खुल गए और प्रिया को हॉस्टल भी मिल गया, तो प्रिया हमारे घर से चली गयी.
कालान्तर में प्रिया कभी-कभार आ भी जाती थी मिलने लेकिन वो मिलना एक-आध घंटे का ही होता था जिस में सारा परिवार शामिल रहता. कोई किसी किस्म की शरारत नहीं, कोई चुहलबाज़ी नहीं. कभी कभी मेरी और प्रिया की नज़र मिल भी जाती तो क्षण भर के लिए... प्रिया की कजरारी आँखों में एक बिल्लौरी चमक और होंठों पर एक गुप्त सी 'मोनालिसा मुस्कान' आ कर गुम हो जाती जिसे सिर्फ मैं ही भांप पाता.
प्रिया जैसी प्रियतमा से प्रेमालाप जैसे जैकपॉट जिंदगी में एक आध बार ही लगते हैं, यह सच्चाई मैं जानता था.
इधर मेरी अपनी वैवाहिक सैक्स-लाइफ बहुत बढ़िया थी! तो मुझे भी जिंदगी से कोई ख़ास शिक़वा नहीं था. लेकिन कभी कभी अनाम सा एक ख़ालीपन महसूस होता था. एक अरमान... दिल में कभी कभार तरंग के रूप में उठता था कि काश! मैं दिन के उजाले में या रात को लाइट जला कर प्रिया के सम्पूर्ण हुस्न को अपनी आँखों से चूम पाता... एक बार... बस! सिर्फ एक बार... प्रेमालाप के दौरान दोनों के जिस्मों की हर हरकत पर प्रिया की आँखों के भाव देख पाता, उसके बाद चाहे कयामत भी आ जाती तो मुझे रश्क़ ना होता.
लेकिन फिर वही 'If the wishes were horses... beggars would ride!'
तो मैं दिल के अरमान दिल में ही दबा लेता.
जिंदगी अपने ढर्रे पर चल रही थी. प्रिया ने M. Com कर ली और अपने घर लौट गयी. प्रिया के घर का माहौल बड़ा दकियानूसी सा था, अजीब ज़ाहिल लोग थे, औरतों को किसी प्रकार की आज़ादी नहीं थी. यहाँ तक कि लड़की घर से बाहर निकले तो परिवार का कोई ना कोई सदस्य साथ होना चाहिए.
घर का छोड़िये... पूरे क़स्बे का माहौल भी सौ साल पुराना था.
पहले की बात और थी... लेकिन अब प्रिया दो साल बड़े शहर में रह कर, बड़े शहर की आज़ादी के रंग ढंग देख कर वापिस गयी थी तो... उस का ऐसी बंदिशों से ऊबना स्वाभाविक ही था. नतीज़न! घर में हल्की-फ़ुल्की बहस बाज़ी और छिट-पुट नाराज़गी के दौर शुरू हो गए थे.
पता लगता था तो सुन कर कोफ़्त तो बहुत होती थी लेकिन हम क्या कर सकते थे. आँखिर यह उनके घर का अंदरूनी मसला था. फिर भी, सुन कर दुःख तो होता ही था.
प्रिया के घर वापिस लौट जाने के कोई तीन महीने बाद सुधा से उसकी बहन यानि प्रिया की मां ने फ़ोन पर सुधा को उनके यहाँ आने को कहा, कोई प्रिया की शादी-ब्याह का मसला था. आते इतवार, मैं और सुधा दोनों प्रिया के घर गए.
हम से प्रिया के सब घरवाले बहुत खुल कर मिले, ख़ास तौर पर प्रिया.
मैंने नोट किया कि प्रिया का इकहरा शरीर आकर्षक रूप से थोड़ा भर गया था, वक्ष थोड़े ज्यादा सख़्त और ज्यादा उभर आये थे, फ़िगर भी शायद 34-26-34 हो चला था. काली आँखों में चमक और बढ़ गयी थी, प्राकृतिक रूप से गहन गुलाबी होंठ थोड़े और भर गए थे जिस से होंठों का कटाव और कातिल हो गया था. सर के गहरे भूरे बाल ज्यादा सिल्की हो गए थे, साफ़ गेहुंए रंग के जिस्म की रंगत में एक चमक थी और कदम धरते वक़्त पुष्ट जांघों और ठोस नितम्बों में हलकी सी हिलोर उठती थी.
कुदरत ने क़ातिल को तमाम हथियारों से नवाज़ दिया था और किसी ना किसी पर कयामत बरपा हो के रहनी ही थी.
हमारे घर में रहते या कभी हॉस्टल में रहते वक़्त जब प्रिया हमारे घर आती तो 'मौसा जी! नमस्ते' कह कर ही इतिश्री कर देती थी लेकिन उस दिन अपने घर में तो प्रिया 'मौसा जी!' कह कर मुझ से ज़ोर से लिपट कर मिली. होंठों से होंठ सिर्फ दो इंच दूर थे और बाकी सारा शरीर एक दूसरे से मिला हुआ. मेरी बायाँ हाथ प्रिया की पीठ पर ठीक ब्रा की पट्टी के ऊपर और प्रिया के दोनों हाथ मेरी पीठ पर... प्रिया का दायाँ उरोज़ मेरी छाती में इतनी ज़ोर से गड़ा हुआ था कि मैं स्पष्ट रूप से अपनी छाती पर प्रिया के उरोज़ का सख़्त निप्पल महसूस कर सकता था, प्रिया की दायीं जांघ मेरी दोनों टांगों के बीच थी और चूंकि मैं प्रिया से लंबा था फलस्वरूप मेरा लिंग प्रिया की नाभि की बगल में लग रहा था और मुझे ऐसा लगा कि प्रिया जानबूझ कर अपने पेट से मेरे लिंग को दबाया भी.
एक क्षण में मेरे लिंग में ज़बरदस्त तनाव आ गया और मुझे लगा कि प्रिया ने मेरी पीठ पर एक जोर से चिकोटी भी काटी थी शायद!
अलग होते वक़्त प्रिया ने कपड़ों के ऊपर से ही अपने बाएं हाथ से मेरे लिंग को भी टटोला. यह सब कुछ क्षण भर में, सब घर वालों के सामने ही हुआ और किसी को भनक तक नहीं लगी. अलग होते वक़्त प्रिया की आँखों में वही बिल्लौरी चमक और होठों पर वही कातिल मुस्कान थी.
मैं थोड़ा बदहवास सा हो चला था... मुझे प्रिया से ऐसी दीदा-दिलेरी की उम्मीद हरगिज़ ना थी. कस्बई लड़की शहर में रह कर सयानी हो चली थी.

मामला यह था कि प्रिया के माँ-बाप ने प्रिया के लिए एक लड़का भी देख रखा था जो आस्ट्रेलिया में था लेकिन प्रिया जिद वश हाँ नहीं कह रही थी. मेरी और सुधा की प्रिया को समझाने की लम्बी कोशिश (जिस में असली मुद्दा तो यह था कि आस्ट्रेलिया जा कर प्रिया अपने मां-बाप की दकियानूसी रोक-टोक से आज़ाद रहेगी और कुछ अपना अपने तौर पर कर पाएगी.) के बाद प्रिया ने अपने माँ-बाप को उस रिश्ते के लिए हाँ कह दी.
शाम को वापिसी में और घर आ कर भी मैं कुछ अजीब सा खालीपन महसूस कर रहा था.
'प्रिया की शादी हो जायेगी... प्रिया ऑस्ट्रेलिया चली जायेगी... फिर जाने प्रिया से मुलाक़ात कब होगी... होगी भी या नहीं... पता नहीं? वक़्त के साथ प्रिया की प्राथमिकतायें बदल जायेंगी और वो परी कथाओं जैसा हमारा मिलन भूली-बिसरी बात हो जायेगी. ओ भगवान! यह कहाँ ला कर पटका मुझे?'
मुझे, मेरे जानने वाले बहुत ही प्रैक्टिकल सोच वाला व्यक्ति मानते हैं लेकिन यह सोच तो हरगिज़ प्रैक्टिकल ना थी.
जैसे-तैसे खुद को संभाला मैंने... दुनियावी तौर पर प्रिया पर मेरा किसी किस्म का कोई हक़ ही नहीं बनता था और सब से बड़ी बात यह थी कि मुझे अपना परिवार, अपनी बीवी जान से ज्यादा प्यारे थे. पर मन पर किस का ज़ोर चलता है.
अगले दिन शाम को जब मैं ऑफिस से घर आया तो देखा कि प्रिया की माँ और प्रिया के पिता यानि मेरी साली और साढू भाई घर आये बैठे थे. पूछने पर बताया कि आस्ट्रेलिया वाले लड़के ने आगामी नवंबर में आना है और प्रिया की शादी नवंबर में ही होगी.
लेकिन लड़के ने कहा है कि प्रिया को बेसिक कम्प्यूटर कोर्स और अगर हो सके तो C++ का डिप्लोमा जरूर करवा दें. अब उन लोगों का कम्प्यूटर से खुद का नाता तो ईंट और कुत्ते वाला ही था तो वो लोग मेरी शरण में आये थे.
यह सब तो मेरे लिए चुटकी बजाने जैसा आसान काम था क्योंकि शहर के 80% कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट मुझ से जुड़े थे. अभी तो अगस्त चढ़ा ही था सो इस फ्रंट पर तो कोई दिक्क़त नहीं थी.
उन का इरादा यह था कि प्रिया मेरे सुझाये किसी अच्छे इंस्टिट्यूट में 2-3 घंटे की क्लास अटेण्ड करे और रोज़ घर वापिस लौट जाए पर मैंने उन लोगों को ऐसा समझाया कि C++ लैंग्वेज़ सीखने में बहुत मेहनत और समय चाहिए और समय ही हमारे पास कम है तो अच्छा रहेगा कि प्रिया रोज़ घर आने जाने के चक्कर में ना पड़ कर 3 महीने यहीं शहर में रहे और सीखे.
मुझे पता था कि आम तौर पर कम्प्यूटर इंस्टिट्यूटस का अपना कोई हॉस्टल नहीं होता सो इस नेक काम के लिए मेरा घर तो था ही!
थोड़ी ना-नुकर के बाद प्रिया के मां-बाप ने इस के लिए हाँ कर दी.
'प्रिया आने वाले 3 महीने हमारे घर में रहने वाली है.' सोच कर ही मेरे लिंग में तनाव आ गया.
अगले ही दिन मैंने एक बहुत नामी कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट के मालिक से बात पक्की की जिसने एक-आध दिन पहले ही सुबह 10 से 2 टाइमिंग का नया बैच शुरू किया था और उसी शाम को थोड़ा अँधेरा हुये मैं अपनी कार पर प्रिया को लेने प्रिया के घर जा पहुंचा. चूंकि सुधा ने सब कुछ पहले से ही फ़ोन पर तय कर रखा था तो प्रिया पहले से ही तैयार थी.
प्रिया मोरपंखिया कुर्ते और काली लैगी में कहर ढा रही थी. प्राकृतिक तौर पर लाल होठों पर दिलक़श मुस्कान, बिना दुपट्टे का उन्नत वक्ष, पतला कटि-प्रदेश, सपाट पेट, अर्ध-गोलाई लिए कसे हुये नितम्ब, पुष्ट जाँघें, पारे से थिरकते जिस्म का एक-एक कटाव नुमाया हो रहा था.
प्रिया को इस रूप में देख कर उत्तेजना से मेरा बुरा हाल था.
पाठकगण! वैसे तो यह कोई ऐसा छुपा राज़ नहीं... लेकिन फिर भी बता देता हूँ कि इन जनाना लैगियों में नाड़ा नहीं होता, इलास्टिक होता है जिस कारण जल्दी से लैगी उतारना और पहनना बहुत सुविधाजनक होता है और गाहे-बगाहे हाथ अंदर सरका कर स्त्री की योनि से खेलने और भगनासा सहलाने में बहुत सुविधा रहती है.
जल्दी से चाय आदि पी कर मैंने प्रिया को ले कर वापस कार मोड़ी. आने वाले आधा-पौना घण्टा कार में मैं और प्रिया बिलकुल अकेले होंगे, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. उत्कंठा के मारे मेरा गला सूख रहा था. क्या करूंगा मैं...??? क्या मैं और प्रिया कार की पिछली सीट पर ही रति-रमण करेंगे या मैं प्रिया को अपनी लैगी और पैंटी नीचे कर के अपनी ओर प्रिया का मुंह कर के अपनी गोद बिठा कर ऊपर से प्रिया के गुलाबी होठों का रस चूसूंगा और नीचे से मेरा लिंग प्रिया का योनि-भेदन करेगा?
'ना ना! हट... छिः छिः! यह कैसी छिछोरी सोच...?? यह तो वासना है... निकृष्टतम वासना... विकृत वासना का घिनौना रूप…!' मेरे सोये विवेक ने वापिस अंगड़ाई ली.
'मैं तो प्रिया से प्यार करता हूँ... चाहे मुझे हक़ नहीं है ऐसा करने का, लेकिन करता हूँ. अपनी प्रियतमा से ऐसे पशुवत व्यवहार की कल्पना भी अपराध है!!! थू… थू… थू!!!'
मैं थोड़ा सयंत हुआ और कार के शीशे चढ़ा कर मैंने कार मंथर गति से आगे बढ़ाई।
क़स्बे की हद से निकलते ही मैंने हिम्मत कर के अपना बायाँ हाथ गियर रॉड से उठा कर प्रिया के दायें हाथ पर रखा दिया। तत्काल एक लहर सी प्रिया के रोम रोम से गुज़र गयी जिसे मैंने स्पष्ट महसूस किया. प्रिया ने मेरे हाथ में अपने हाथ की उंगलियाँ कस कर पिरो दी. मैंने एक पल के लिए प्रिया की ओर देखा। सामने से आते किसी वाहन की हैडलाईट के नीम उजाले में प्रिया की कजरारी आँखों में वही बिल्लौरी चमक और गुलाबी होंठों पर वही जानी-पहचानी मोनालिसा मुस्कान दिखी।
हम दोनों एक दूसरे से कुछ बोल तो नहीं रहे थे लेकिन मौन सम्प्रेषण चालू था. प्रिया के शरीर में रह रह कर उत्तेज़ना की तरंग उठ रहीं थी जिन के फलस्वरूप प्रिया का हाथ मेरे हाथ पर कस कस जाता था जिन्हें मैं स्पष्ट महसूस कर रहा था. मैं निःसंदेह जन्नत में था.
स्त्री-मन... एक पहेली-2
दो पल बीते या सदियाँ गुज़र गयी, कुछ पता नहीं. अचानक मेरे कानों में प्रिया की आवाज़ सुनाई दी...
"मैंने आप से एक बात करनी है."
"कहो...!"
"आप बुरा ना मानना... प्लीज़!"
"अरे नहीं... तुम बोलो?" मैंने घूम कर एक नज़र प्रिया की ओर देखा।
नज़र झुकाये, अपने दोनों हाथों में मेरा हाथ थामे, प्रिया ग्रीक की कोई देवी की मूरत सी लग रही थी.
"आप मेरे जीवन के प्रथम-पुरुष हैं, मैं मन ही मन आप को पूजती हूँ और मेरे दिल में हमेशा आप की एक ऊंची और ख़ास जगह है और हमेशा रहेगी। इस के साथ ही यह भी सच है कि आप का और मेरा साथ किसी भी सूरत संभव नहीं. मेरी आप से विनती है कि जिसे मैंने अपने मन-मंदिर का देवता माना है वो देवता ही रहे."
"मैं समझा नहीं?" मैंने अनजान बन कर पूछा हालांकि समझ तो मैं गया ही था.
"आप के और मेरे बीच एक बार जो हुआ वो किस्मत थी लेकिन मैं सुधा मौसी को बहुत प्यार करती हूँ और हरगिज़-हरगिज़ नहीं चाहती कि मैं उन के दुःख का कारण बनूँ. इंसान फ़ितरतन लालची है उसे और... और... और चाहिए लेकिन मैं नहीं चाहती कि इस और... और के लालच में ये जन्नत जो आज मेरे पास है, मैं उसे भी खो बैठूं!"
"प्रिया! साफ़ साफ़ कहो कि तुम मुझ से चाहती क्या हो?"
"आइंदा क़रीब तीन महीने मुझे फिर से आप के घर में रहना है और मैं चाहती हूँ कि वहाँ घर में आप ना सिर्फ़ सब के सामने बल्कि अकेले में भी सिर्फ मेरे मौसा जी ही बन कर रहें."

बहुत गहरी बात थी लेकिन बात तो प्रिया ठीक कह रही थी पर उस की इस बात से मेरे अन्तर्मन को गहरी ठेस लगी. शायद नकारे जाने का अहसास था. मेरा हाथ जिस में प्रिया का हाथ कसा हुआ था फ़ौरन ढीला पड़ गया. प्रिया को तत्काल इस का भान हुआ और उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में जोरों से कस लिया और मेरा हाथ यहाँ वहाँ चूमने लगी.
अचानक मेरी हथेली के पृष्ठ भाग पर पानी की दो गर्म गर्म बूंदें गिरी. मैंने तत्काल अपना हाथ छुड़ा कर कार साईड में रोकी और प्रिया की ओर मुड़ा, उसकी ठुड्ढी उठा कर देखा तो प्रिया की आँखों से गंगा-जमुना बह रही थी.
मेरा दिल भर आया, जैसे ही मैंने उसे खींच कर अपने गले से लगाया तो मानो कोई बाँध ही टूट गया. प्रिया मुझ से कस कर लिपट गयी और ज़ार-ज़ार रोने लगी और मैं अनजाने में ही प्रिया के कपोलों पर से अपने होंठों से उस के आंसू बीनने लगा.
कुछ ही क्षणों के बाद मैं प्रिया के होंठ चूम रहा था और प्रिया मेरे!
अचानक प्रिया ने मेरे मुंह में अपनी जुबान धकेल दी और मैं आतुरता से प्रिया की जुबान चूसने लगा, अपनी जीभ से प्रिया की जीभ चाटी, प्रिया के उरोज़ मेरी छाती में धंसे जा रहे थे और मैं दोनों हाथों से प्रिया को आलिंगन में ले कर अपनी ओर खींचे जा रहा था. प्रिया के होंठ चूमें, गालों पर, आँखों पर, माथे पर दर्ज़नों चुम्बन लिए, दोनों कानों की लौ चूसी, कानों के पीछे, गर्दन पर अपनी जीभ फेरी. दोनों उरोजों के बीच की घाटी को चूमा-चाटा पर सब्र कहाँ?
हम लोग बड़ी ही असुविधजनक स्थिति में बैठे थे लेकिन परवाह किस को थी. दोनों की साँसें इतनी तेज़ हो रही थी जैसे मीलों भाग कर आए हों. कार में इस से ज्यादा कुछ होने/करने की गुंजायश भी नहीं थी. धीरे-धीरे प्रेम-उद्वेग हल्का पड़ा तो दोनों के होशो-हवास वापिस आये. रात 9 बजे… बिज़ी नेशनल हाईवे पर खड़ी कार में प्रेम-आलाप... अव्वल दर्ज़े की मूर्खता के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता.
मैंने धीरे से प्रिया को अपने-आप से अलग किया, प्यार से उसके चेहरे पर अपना हाथ फिराया, बाल पीछे किये, आँखें पौंछी और माथे पर एक चुम्बन लिया.
प्रिया मुस्कुरा दी. वही जादुई मुस्कान जो सारे गम बिसरा दे. मैंने इक निःश्वास भरी- ठीक है प्रिया! जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा.
"थैंक्यू! आप ने मेरे शब्दों की लाज रखी. आप कुछ भी मुझ से मांग सकते हैं... भगवान-कसम! मैं दे दूंगी."
"छोड़! जाने दे."
"नहीं प्लीज़! आप कहिये…. मुझे ख़ुशी मिलेगी."
"नहीं... जाने दे."
"अरे! कहिये तो... आप को मेरी कसम."
"अरे छोड़! मैं तुझ से प्यार करता हूँ और जिस से प्यार करते हैं उस को दिया करते हैं, उस से मांगा नहीं करते."
"चाहे दिल में कोई अधूरी तमन्ना... दिन-रात का चैन हराम किये रखे... तो भी??"
क्या कहना चाह रही थी लड़की? क्या उसे मेरे दिल में पल रही ख्वाहिश का पता चल गया था? हो ही नहीं सकता. यह बात तो मैंने ख़ुद अपने से भी नहीं कही थी किसी और से कहने की बात तो बहुत दूर की कौड़ी थी. मैं नज़रें फेर कर चुप सा ही रहा और प्रिया अपनी गहन दृष्टि सर मेरे चेहरे के भाव पढ़ती रही.
"ओ.के! अब अगर मैं आप से कुछ माँगूँ तो क्या आप मुझे देंगें??" कुछ पल बाद प्रिया ने पूछा.
"तेरे लिए... कुछ भी! जान मांगे तो जान भी!!" कहते-कहते जाने क्यों मेरी आँख भर आयी.
प्रिया ने हाथ बढ़ा कर मेरा मुंह अपनी ओर किया और मेरी आँखों में आँखें डाल कर बोली- लाखों, करोड़ों दुआएं क़ुबूल होने पर मिली मुराद जैसा उस रात का मिलन... एक बार! सिर्फ़ एक बार और... फिर से मुझे दे दीजिये.
प्रिया की यह बात सुन कर मैं भौंचक्का सा रह गया.
हे भगवान्... यह चमत्कार कैसे हुआ? क्या प्रिया ने मेरा दिमाग पढ़ लिया था?
"लेकिन इस बार अँधेरे की बजाए उजाले में..." मैंने पलट कर कहा.
क्षण भर के लिए प्रिया के चेहरे पर उलझन की बदली सी छायी... लेकिन जैसे ही उस को बात समझ में आयी तो उस के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, चेहरे पर हया की लाली छा गयी और उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया.
"अगर ऐसा करने में तुम्हें कोई परेशानी है तो रहने दे प्रिया!"
प्रिया ने तिरछी नज़र से मेरी ओर देखा और बोली- ठीक है! जैसा आप चाहो... पर समय सीमा कोई नहीं."
"लेकिन यक़ीनन तेरी शादी से पहले!"
"देखेंगे!!" प्रिया के हाव भाव में फिर से शरारत लौट आयी.
मैंने कार स्टार्ट की और हम घर वापिस आ गए.
तमाम शिक़वे-शिकायतें दूर हो गए थे और मन हल्का हो गया था. इक अनाम सी ख़ुशी दिल में हिलोर मार रही थी. जिंदगी फिर शुरू हो गयी थी. प्रिया वापिस अपने कमरे में सैटल हो गयी थी। पाठक-गण! आज भी हमारे घर में उस कमरे को 'प्रिया वाला रूम' ही कहते हैं.
प्रिया रोज़ 9 बजे तैयार हो कर एक्टिवा लेकर कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट चली जाती थी और करीब ढ़ाई बजे वापिस आ कर खाना खा कर थोड़ी देर आराम करती थी. पांच से सात सुधा के साथ रसोई आदि का काम, सात से नौ अपने कम्प्यूटर पर प्रेक्टिस, नौ बजे डिनर, साढ़े नौ से सोने के टाइम तक बच्चों और सुधा के साथ गप-शप.
मेरा और प्रिया का आमना-सामना आम तौर पर डिनर टेबल पर या कभी कभार जब मैं ऑफिस से आता था तो प्रिया मुझे पानी देने आती थी... तब होता था. पानी का गिलास मुझे थमाते वक़्त प्रिया के होंठों पर वही 'मोनालिसा मुस्कान' देख कर मेरा मन तो कई बार मचला लेकिन क्या करता... वचन-बद्ध था.
दो-एक महीने बाद मैंने गौर किया कि प्रिया भी सुधा के साथ हर शनिवार शाम को ब्यूटी-पॉर्लर-कम-स्पा जाने लगी थी.
एक रात सोने से पहले मैंने सुधा से इस बारे में पूछा तो उसने हंस कर कहा- अब उसकी शादी होने वाली है तो अपने शरीर को अपने पति का स्वागत करने के लिए तैयार कर रही है.
"पति के स्वागत की तैयारी? मैं समझा नहीं?"
"अरे बुद्धूराम! मैनिक्योर, पैडीक्योर, नेल-कलरिंग, नेल-पॉलिशिंग, स्किन-टोनिंग, फुल बॉडी वैक्सिंग, थ्रैडिंग, हेयर स्टीमिंग, हेयर कंडिशनिंग, स्टीम-बाथ, फुल बॉडी ऑइल-मसाज़ आदि आदि."
"फुल बॉडी ऑइल-मसाज़? मतलब... सारे कपड़े उतार के?"
"और नहीं तो क्या... कपड़े पहन कर?"
"यार! तुम औरतें भी ना! अच्छा! एक बात बताओ... औरतें प्यूबिक हेयर भी वैक्स करवाती हैं?" (प्यूबिक हेयर मतलब- योनि के आस पास के बाल)
"हाँ! बहुत करवाती हैं लेकिन मैं नहीं करवाती... पर प्रिया करवाती है."
हुस्न की शमशीर को धार लग रही थी, कोई किस्मत वाला परम मोक्ष को प्राप्त होने वाला था. प्रिया के रेशम-रेशम जिस्म की कल्पना करते ही मेरे लिंग समेत मेरे जिस्म का रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो गया और उस रात बिस्तर में मैंने सुधा की हड्डी पसली एक कर के रख दी.
ऐसे ही अक्टूबर का आखिरी हफ्ता आ पहुंचा. बच्चों को दशहरे की छुट्टियाँ थी. प्रिया का कंप्यूटर कोर्स भी अपने अंतिम चरण में था, पांच-छह दिन की और बात थी, 02 नवंबर को प्रिया ने घर लौट जाना था.
प्रिया का मंगेतर 10 नवंबर को आने वाला था और शादी 19 नवंबर की फ़िक्स थी.
इधर प्रिया ने अभी तक मुझे अपने पुट्ठे पर हाथ तक नहीं धरने दिया था. मुझे अपने सपने का भविष्य बहुत अंधकारमय लग रहा था.
फिर अचानक एक चमत्कार हो गया. उसी शाम मेरी पत्नी सुधा के एक चाचा श्री हमारे घर पधारे. यह साहब एक बड़े ट्रांसपोर्टर है और इन की कोई 70-80 A.C टूरिस्ट बसें पूरे उत्तर भारत में चलती हैं, इन साहब ने अपनी कोई मनौती पूरी होने के उपलक्ष्य में अपने गोत्र की सारी लड़कियों समेत वैष्णो देवी दर्शन के लिए पूरी AC स्लीपर वाली वॉल्वो बस बुला रखी थी. यह साहब उस यात्रा के लिए हमें न्यौता देने आये थे. वीरवार रात को निकलना था, शुक्रवार सारा दिन चढ़ाई कर के दर्शन करने थे, शुक्रवार रात वहाँ से वापसी कर के शनिवार सवेरे वापिस घर पहुँच जाना था.
सुधा का बहुत मन था जाने का लेकिन मेरा जाना मुश्किल था क्यों कि सीज़न का समय था, मैं घर से सुबह का निकला रात 9-10 बजे घर आता था. चूंकि प्रिया का कंप्यूटर कोर्स आँखिरी चरण में था तो प्रिया भी सुबह की गयी शाम 5 के करीब घर वापिस आ पाती थी. तो प्रिया की मम्मी को साथ चलने के लिए फ़ोन लगाया गया और साली साहिबा भी फटाक से सुधा के साथ चलने को तैयार हो गयी.
फ़ाइनल प्रोग्राम यह बना कि प्रिया की माताश्री वीरवार शाम तक हमारे घर आ जाएंगी और सुधा और उन को मैं वीरवार शाम को चाचा जी के घर जा कर बस चढ़ा आऊंगा और शनिवार सुबह को चाचा जी के घर जा कर ले आऊंगा। दोनों बच्चे यहीं हमारे पास रहेंगें. एक ही दिन की तो बात थी.
वीरवार शाम 7 बजे के लगभग मैं घर आया तो देखा कि मेरे दोनों बच्चों ने रो रो कर आसमान सर पर उठा रखा था, दोनों अपनी मां और मौसी के साथ जाने की जिद कर रहे थे. बड़े धर्म-संकट की स्थिति थी. भगवान् जाने! बस में अब एक्सट्रा स्लीपर उपलब्ध था भी या नहीं!
सुधा ने बहुत सकुचाते हुए चाचाजी को फ़ोन लगाया गया और मसला बयान किया. सुन कर चाचा जी फ़ोन पर ही रावण जैसी ऊँची हंसी हंसे और बोले- कोई बात ही नहीं... 5-7 जन और हों तो उन्हें भी ले आओ. बस एक नहीं, दो जा रहीं हैं. तुम लोग... बस! आ जाओ!
मामला हल हो गया था, आनन फ़ानन में बच्चों का भी बैग पैक किया गया. करीब 8 बजे मैं इन चारों को चाचा श्री के घर छोड़ने निकल पड़ा. प्रिया भी हमारे साथ ही थी. अचानक मुझे एक झटका सा लगा और महसूस हुआ कि आज की रात तो मुरादों वाली रात हो सकती है... आने वाले करीब 36 घंटे मेरी तमाम जिंदगी की हसरतों का हासिल हो सकते थे. ऐसा सोचते ही मैं तनाव में आ गया.
तभी सुधा ने पूछा- क्या बात है? आप अचानक चुप से क्यों हो गए?
"ऐसे ही... तुम अपना और बच्चों का ख्याल रखना."
"अरे! एक दिन की तो बात है. आप फ़िक्र ना करें. बस आप कल शाम को टाइम से घर आ जाना, लेट मत होना. प्रिया घर में अकेली होगी."
"ठीक है."
उन चारों को चाचा जी के घर छोड़ कर, जहाँ सब के लिए डिनर का प्रोग्राम भी था और साफ़ दिख रहा था कि बसें 11 बजे से पहले नहीं चलेंगी. खाना-वाना खा पी कर मुझे और प्रिया को वापिस घर पहुँचते पहुँचते 10:30 बज गए.
घर पहुँचते ही प्रिया कार से उतर कर दौड़ कर अपने कमरे में जा घुसी और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया.
मैंने गैरेज का शटर डाउन किया, मेन-गेट को अंदर से ताला लगाया और अंदर दाखिल हुआ, कपड़े बदले और किचन में जा कर कॉफ़ी बनायी।
"प्रिया... कॉफी पियोगी?" मैंने आवाज लगाई.
कोई जबाब नहीं मिला.
दोबारा आवाज़ लगाई... फिर कोई जvaaब नहीं!
अजीब बर्ताब कर रही थी लड़की!
ख़ैर! मैं अपना कॉफ़ी का मग उठा कर प्रिया के दरवाज़े के पास आया और पूछा- प्रिया! ठीक हो?
"हूँ" की एक मध्यम सी आवाज़ सुनाई दी.
मैं दो पल वहीं खड़ा रहा और फिर कॉफ़ी सिप करता करता अपने बैडरूम में आ गया. मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो गया था लड़की को?
सिप-सिप कर के मैंने अपनी कॉफ़ी ख़त्म की और वाशरूम में जा कर पहले 'अपना हाथ, जगन्नाथ' किया, फिर ब्रश किया. अंडरवियर उतार कर लॉन्ड्री-बास्केट में डाला और बिना अंडरवियर के नाईट सूट पहन लिया.
अजीब बात थी... मैं और मेरी मुजस्सम मुमताज़ घर में अकेले थे लेकिन एक नहीं हो पा रहे थे.
यही वो प्रिया थी जो सवा डेढ़ साल पहले सुधा की मौजूदगी में भी मुझ से प्यार करने में नहीं हिचकी थी और आज जब कि घर में किसी के होने का, किसी को पता चल जाने का, मुहब्बत का राज़ फाश हो जाने जैसा कोई खतरा नहीं था तो 'वो' अपनी मर्ज़ी से, अपने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर के बैठी थी.
बेड पर अधलेटे से बैठे, ऐसा सोचते सोचते जाने कब मेरी आँख लग गयी. ट्यूब लाइट भी जलती रह गयी. बैडरूम का दरवाज़ा तो खुला था ही!